संघठन सूक्त
ओ३म् सं समिधवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ |
इड़स्पदे समिधुवसे स नो वसुन्या भर |१|
इड़स्पदे समिधुवसे स नो वसुन्या भर |१|
हे प्रभो ! तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को ||
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिए धन वृष्टि को ||
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिए धन वृष्टि को ||
ओ३म सगंच्छध्वं सं वदध्वम् सं वो मनांसि जानतामं |
देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते |२|
देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते |२|
प्रेम से मिल कर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो |
पूर्वजों की भांति तुम कर्त्तव्य के मानी बनो ||
पूर्वजों की भांति तुम कर्त्तव्य के मानी बनो ||
समानो मन्त्र:समिति समानी समानं मन: सह चित्त्मेषाम् |
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि |३|
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि |३|
हों विचार समान सब के चित्त मन सब एक हों |
ज्ञान देता हूँ बराबर भोग्य पा सब नेक हो ||
ज्ञान देता हूँ बराबर भोग्य पा सब नेक हो ||
ओ३म समानी व आकूति: समाना ह्र्दयानी व: |
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति |४|
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति |४|
हों सभी के मन तथा संकल्प अविरोधी सदा |
मन भरे हो प्रेम से जिससे बढे सुख सम्पदा ||
मन भरे हो प्रेम से जिससे बढे सुख सम्पदा ||
Labels: धर्म एवं अध्यात्म
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