कैसे बकवास फिल्मे भी कमा लेती है 100 करोड़ से ऊपर ?
बोलीवुड में जिस प्रकार से धन कमाने के लिए प्रयोग किये जा रहे है उस से राष्ट्र विरोधी ताकतों के दो हित सध रहे है एक उनको धन का लाभ हो रहा है दूसरा उनकी विचारधारा फ़ैल रही है | एक फिल्म समाज नही बदलती पर एक ही जैसे दसियों फिल्म समाज में बोये बीज को पल्लवित कर देती है | विवाहोत्तर सम्बन्ध हो या विवाह पूर्व सम्बन्ध बोलीवुड की फिल्मे इसे ऐसे दिखाती है जैसे ये नित्य स्नान हो इसमें कुछ भी गलत नहीं | कोई भी व्यवसाय गलत नहीं बस धन पैदा होना चाहिए मरो तो शेरो की तरह मरो दौलत तो कमा ली | भारतीय सेना कश्मीरियों पर अत्याचार करती है आतंकी सेना के अत्याचार से पैदा है हमारी सेना के अधिकारी गोली मारने में छोटी बच्चियों को भी नही छोड़ते इस प्रकार की निरंतर फिल्मे बनती जा रही है जिनपर कोई अंकुश नहीं है |
अधिकतर फिल्मे बकवास होती है पर फिर भी ये बहुत अधिक व्यापार कर लेती है | इसका कारण जानना आवश्यक है वही दूसरी ओर कुछ बहुत ही अच्छा सन्देश देने वाली फिल्मो को कोई जानता भी नहीं है |
फिल्म निर्माण अब घाटे का तो कैसे भी नहीं रह गया है |
फिल्मे निम्न प्रकार से कमाती है
१. फिल्म के संगीत से
२. सीधे दर्शको से
३. विदेशो में प्रदर्शन से
४. टी.वी पर प्रसारण के अधिकार को बेचने से
बकवास फिल्मो की कमाई कैसे होती है
मल्टीप्लेक्स शब्द आपने सुना है एक ही स्थान पर कई सारे थियेटर | फिल्मो का टिकट शुक्ल भी बढ़ा है और मल्टीप्लेक्स की संख्या भी | डिस्ट्रीब्यूशन की कंपनिया भी नई-२ बनी है और सीधे टिकट खरीदने के लिए ऑनलाइन वेबसाईट भी | इसके साथ-२ फिल्म के प्रोमोशन पर बहुत बड़ी रकम व्यय की जाती है | साक्षात्कार कार्यक्रमों में जाकर कलाकार भी प्रचार करते है | अब जो अच्छी फिल्मे भी है उन्हें ५०० से १००० तक के थियेटर ही मिलते है | जब की बड़े स्टार की फिल्मो को २००० से ३००० और ऊपर थियेटर मिल जाते है | अधिकतर फिल्म को प्रसारित करने का समय ऐसा रखा जाता है जब लोग पैसा खर्च करते हैं | अब यदि कोई फिल्म २५०० थियेटरो में प्रसारित हो रही है तो कुछ भी नहीं करना है फिल्म का प्रसारण उस से जुड़े बड़े फिल्मस्टार के नाम से हो रहा है | एक सप्ताह में फिल्म बड़ा व्यवसाय कर लेती है भले ही सीटे आधी ही भरे | अब हाउसफुल के दौर समाप्त हो गए है न ही कोई फिल्म सालो किसी एक थियेटर में लगी रहती है |
इन्टरनेट पर आपको वीर सावरकर के जीवन पर फिल्म मिल जायेगी | उस फिल्म को थीएटर तक नहीं मिले | सरदार नाम की एक फिल्म जो सरदार पटेल की भूमिका पर बनी, बलिदान मास्टर सूर्यसेन के नेतृत्व में चट्टोग्राम विद्रोह पर बनी फिल्म "खेले हम जी जान से" जिसमे अभिषेक बच्चन ने भूमिका निभाई नहीं चली |
कैसे बदला जाए परिस्तिथियो को
अनेको विषय है जिनपर फिल्म बना कर हमारा सही इतिहास दिखाया जा सकता है | यदि शिक्षा व्यवस्था बदलना हमारे हाथ में नहीं तो फिल्मे बना कर लोगो को शिक्षित करना तो है | ये उद्योगपती और अच्छे लेखक मिलकर कर सकते है | दक्षिण भारत की फिल्मे बहुत ही बेहतर बनती है | मुझे ये समझ आता है की उनका मजाक इसी डर के कारण बनाया जाता है क्यों की दक्षिण का उद्योग हिंदी फिल्म उद्योग को बड़े स्तर पर नुक्सान पहुचा सकता है | यदि दक्षिण भारत की फिल्मे डबिंग के साथ एक साथ ही पुरे भारत में रिलीस की जाए तो बहुत अच्छा व्यापार करेंगी और हम अपनी संस्कृति के अधिक पास होंगे | उसी की रीमेक बनी फिल्मे बहुत कमाती है जैसे होलीडे | पर यही हिंदी में सीधे दर्शको को मिले तो दक्षिण और उत्तर में दुरी कम होगी | बाहुबली जैसी फिल्मे एक अच्छा उदाहरण है | चेन्नई वर्सेज चाइना भी अच्छा उदाहरण है | ऐसे अनेको फिल्मे बनी है | लोगो को बेहेतर विकल्प मिलेंगे तो वे बहेतर विकल्प को ही जायेंगे | इसके साथ-२ हिंदी फिल्म उद्योग को दिल्ली के आस पास लाना चाहिए इस से उत्तर भारत की प्रतिभाओं को अच्छा अवसर मिलेगा व्यापार का लाभ कई राज्यों को होगा और जो हिंदी विरोध बैठा है या फैलाया जा रहा है स्वार्थी राजनितिज्ञो द्वारा उनको भी समझ आयेगा |
Labels: फिल्म समीक्षा
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