Monday, 1 August 2016

ब्रह्माण्ड के अनादी तत्व

ब्रह्माण्ड के अनादी तत्व
हर विवेकी मनुष्य में अपार जिज्ञासाए होती हैं | किसी में कम किसी में ज्यादा | हमें किसने बनाया ? क्यों बनाया ? कैसे बनाया ? क्यों बनाया ? अगर बनाने वाला परमात्मा हैं तो उसका स्वरुप कैसा हैं ? ईश्वर के संसार निर्माण की प्रक्रिया ? और जिसने भी हमें बनाया उसे किसने बनाया ? इत्यादि इत्यादि बहुत से प्रश्न हमारे मस्तिष्क में कभी ना कभी घूमते ही हैं | पर इन सवालो के लिये भी आवयश्क हैं के ब्रह्माण्ड में क्या क्या हैं जिसे हम जाने | तो हम अपनी चर्चा यही से प्रारंभ करते हैं | जिज्ञासु और मीमांसक बन के | इसे समझने के लिये आपको भी जिज्ञासु बनाना होगा और अपने पूर्व के ज्ञान को कुछ समय के लिये भूल के इन बातो को चिंतन के साथ अध्यन करियेगा |
जिज्ञासु : आप ब्रह्माण्ड में कितने तत्व मानते हैं ?
मीमांसक : हम ब्रह्माण्ड में तीन तत्व मानते हैं ?
जिज्ञासु : कौन कौन से ?
मीमांसक : परमात्मा, आत्मा और प्रकृति ?
जिज्ञासु : ये तत्व कहा से आये ? इन्हें किसने बनाया ?
मीमांसक : ये तत्व अनादी हैं | अर्थात सदा से थे और सदा रहेंगे |
जिज्ञासु : एक-एक कर के हमें इन तत्वों के बारे में बताइए | पदार्थ क्या हैं ?
मीमांसक : जिस तत्व से यह जगत द्र्श्य्मान हैं और महसूस भी होता हैं वह पदार्थ प्रकृति हैं | प्रकृति से महत्, महत् से तन्मात्राए तन्मात्राओ से आपः और उस से परमाणुओ का निर्माण हुआ | परमाणुओ में अपार ऊर्जा भरी होती हैं | यानी प्रत्यक्ष स्वरूप हमें सिर्फ प्रकृति का द्रव्यमान और ऊर्जा ही दिखती हैं | ऊर्जा स्वरुप में हमें ऊष्मा, प्रकाश, ध्वनि इत्यादि का ज्ञान हैं | द्रव्यमान और ऊर्जा दोनों जड़ हैं और अंतर परिवर्तनीय हैं भौतिकी के समीकरण से सिद्ध हैं |
जिज्ञासु : तो हमें आत्मा और परमात्मा के सिद्धांत को मानने की जरुरत क्या हैं ? प्रकृति को स्वाभाव से ही हम ऐसा मान ले तो कई सवालो से बच सकेंगे |
मीमांसक : हम ऐसा नहीं मान सकते क्यों की हम कई सवालो में उलझ जाएंगे | और यह विज्ञान विरुद्ध भी हैं | कार्य कारण सम्बन्ध का भी ये सिद्धांत पालन नहीं करता | प्रकृति जड हैं और जड़ स्वं गति नहीं कर सकती | जड़ चिंतन नहीं कर सकती जड निर्माण  भी नहीं कर सकती | जड़ वास्तु से निर्माण होता हैं जड़ वस्तु, कर्ता कारण अलग मानना ही पड़ता हैं |
जिज्ञासु : कर्ता भिन्न क्यों माने ?
मीमांसक : क्यों की हम अपने दैनिक जीवन में कर्ता भिन्न ही देखते हैं | वस्तु तब तक नहीं हिलती जब तक हम किसी कारण उन्हें हिलाते नहीं | जब बड़े स्वरुप में ऐसा हैं तो सूक्ष्म स्तर पर और अति विशाल स्तर पर भी करने वाला हमें मानना पड़ेगा | इसी प्रकार हमारा शरीर भी किसी अलग चेतना द्वारा नियंत्रित होता हैं |
जिज्ञासु : सूक्ष्म स्तर पर और अति विशाल से आपका क्या तात्पर्य हैं ?
मीमांसक : सुक्ष्म यानी आणविक स्तर पर और अति विशाल यानी ब्रह्माण्डीय स्तर पर | दोनों स्तर पर एक ही चेतना नियंत्रण कर रही हैं | इसी चेतना को हम परमात्मा के नाम से जानते हैं |
जिज्ञासु : यह आप कैसे कह रहे हैं सूर्य में आणविक प्रक्रीया अपने आप होती हैं और उस से निकलने वाला प्रकाश और ऊष्मा स्वमेव हमें मिलती हैं |
मीमांसक : स्वमेव क्या होता हैं ? सूर्य में चल रही प्रक्रिया किस प्रकार प्रारंभ हुई ? यदि किसी बड़े तारे से तो प्रश्न उठेगा वहा से कहा प्रारम्भ हुआ ? इस प्रकार इस प्रश्न को कर्ता कारण पर आकर रुकना ही होगा | वह कर्ता चेतन हैं |
जिज्ञासु : यदि हम पदार्थ का गुण ही गति मान ले तो ?
मीमांसक : प्रथम तो हम ऐसा कर नहीं सकते और कोई अन्य कारण से मान भी तो ऐसा मान लेने पर भी हम जानते हैं के जड़ प्रकृति के कण इतने नियंत्रित नहीं हो सकते की स्वं परमाणु का निर्माण कर सके | श्रष्टि में नियंत्रण करने की क्षमता भी चेतना को जड़ से भिन्न करती हैं |
जिज्ञासु : किस प्रकार जड़ चेतन से भिन्न हैं ?
मीमांसक : जड़ प्रकृति निर्माण का पदार्थ मात्र हैं | चेतन वह जो जड़ को गति दे अथवा गति को दिशा समेत नियन्त्रित कर सके | चेतना ज्ञान से युक्त होती हैं |
जिज्ञासु : अगर ऐसा हैं तो फिर ब्रह्माण्ड में बहुत सा पदार्थ प्रयोग ही नहीं होना चाहिए | और बहुत से ब्रह्माण्ड में निर्माण भी नहीं होना चाहिए |
मीमांसक : हां ऐसा ही हैं | डार्क मैटर नाम का पदार्थ अभी भी रहस्य बना हुआ हैं भौतिकविदो के लिए | यदि वे वेद और शांख्य से अध्यन करे तो इसके उत्तर मिलेंगे | मेरे अनुमान से ये प्रकृति ही हैं अपनी मूला अवस्था में जैसी वेद में वर्णित हैं | ब्रह्माण्ड में निर्माण और विखंडन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती हैं | जिस वक्त जिस चीज़ का पूर्ण निर्माण होता हैं उसी वक्त उसका विखंडन भी प्रारंभ हो जाता हैं | “सयोग की प्रथम अवस्था और विखंडन की अंतिम अवस्था का नाम परमाणु हैं“ यह परिभाषा मेरे मस्तिष्क में अभी भी हैं |
जिज्ञासु : परन्तु परमात्मा छोटे से लेकर बड़े तक कैसे ब्रह्माण्ड को नियंत्रित कर रहा हैं ?
मीमांसक : यह आप परमात्मा के स्वरुप को ना समझ कर प्रश्न उठा रहे हैं | कोई उस परमात्मा को नूर कहता हैं , तो कोई मनुष्य का स्वरुप | पर वह निराकार ब्रह्म हैं |
जिज्ञासु : निराकार ब्रह्म का अर्थ क्या हुआ ?
मीमांसक : इसका अर्थ हुआ के पूरा जगत ब्रह्म में स्थित हैं | शून्य जैसा कुछ भी नहीं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस चेतना से भरा हुआ हैं | वह हर स्थान पर सामान रूप से स्थित हैं और यह उसके न्यायकारी और सर्वज्ञानी होने के गुणों को भी पूर्ण करता हैं | यह हम विस्तृत अलग लेख में समझायेंगे |

जिज्ञासु : तो शरीर के अंदर की चेतना भी क्या हम उसी परमात्मा से नियंत्रित माने ? या उसके अंश से ?
मीमांसक : शरीर में जीवात्मा हैं | यह परमात्मा से भिन्न हैं | जीवात्मा भी अनादी हैं | और हम उस परमात्मा का अंश नहीं मान सकते | असीम चेतना विखंडित नहीं होती ना ही बंधन में बंधती हैं साथ ही इस मान्यता से श्रष्टि के निर्माण का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा | जो की अल्पज्ञ जीव और प्रकृति का मिलन हैं |
जिज्ञासु : यदि परमात्मा अनंत और असीम हैं तो अनंत में से कुछ निकल भी जाए तो क्या फर्क पड़ता हैं ?
मीमांसक : तो उसके गुणों में भी कोई भिन्नता नहीं आएगी | इस प्रकार जीवात्मा भी सर्वज्ञ होनी चाहिए पर वो नहीं हैं | और उसकी न्याय सत्ता भी प्रभावित होगी | जहा उसका अंश होगा वहा प्रभाव ज्यादा जहा नहीं वहा उसकी शक्ति कम होगी और यह विचार मूर्खतापूर्ण हैं | अतः परमात्मा विखंडित नहीं होता | और परमात्मा में प्रकृति तो पूर्व से ही हैं जिसे वह पूर्व में भी ग्रहण नहीं करता |
(ऋग वेद के मन्त्र को शिल्पित किया था हडप्पा की खुदाई में पत्थर मिला | एक पेड पर २ चिड़िया बैठी हैं एक उस व्रक्ष का फल खा रही हैं यानि जीवात्मा और दूसरी सिर्फ उसे देख रही हैं| इसी को एनी मताविंयो ने अलग कहानी गड लिया )
जिज्ञासु : तो फिर उस परमात्मा ने श्रष्टि का निर्माण क्यों किया ?
मीमांसक : क्यों की निर्माण का पदार्थ प्रकृति मौजूद थी इस से समागम के गुण रखने वाली जीवात्मा भी | और इन सबको नियंत्रित करने का सामर्थ्य परमात्मा में हैं | इसलिए उसने निर्माण किया क्यों की वह पुरुषार्थी हैं |
जिज्ञासु : तो मोक्षा अवस्था में जीवात्मा परमात्मा में नहीं विलीन होती ? प्रकृति भी प्रलयावस्था में नहीं विलीन होती ?
मीमांसक : नहीं , मोक्ष अवस्था में जीव्त्मा परमात्मा के आनंद में एक निश्चित समय के लिए चली जाती हैं | और स्वतंत्र रूप से ब्रह्माण्ड में भ्रमण करती हैं | प्रलय काल में प्रक्रति की बस अवस्था बदलती हैं | परमात्मा, जीव और प्रकृति तीनो इस श्रष्टि निर्माण में त्रिभुज की भूमिका में हैं | यह सदैव से भिन्न थे और सदैव भिन्न रहेंगे |
जिज्ञासु : आप अपनी बात का वेद से प्रमाण दे सकते हैं |
मीमांसक : हां क्यों नहीं,
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं व्रकशम व्रक्ष परि षस्वजाते |
तयोरन्यः पिप्पलं स्वद्व्त्त्न्श्न्न्न्यो अभी चाकशीती ||१| ऋ० म १|सू० १६४ म० २०||
(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतना और पालनादी गुणों से सद्रश (सयुजा) व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादी हैं और (समानम) वैसा ही (वृक्षम) अनादी मूल रूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त व्रक्ष अर्थात जो स्थूल रूप होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता हैं |वह तीसरा अनादी पदार्थ इन तीनो के गुण कर्म और स्वभाव भी अनादी हैं (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव हैं वह इस व्रक्ष रूप संसार में पाप पुण्य फलो को ना भोगता हुआ (स्वद्व्त्ति) अच्छे प्रकार भोगता हैं और दूसरा परमात्मा कर्मो के फलो को (अंश्न्न) ना भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा हैं | जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरुप तीनो अनादी हैं ||१||
वेद मन्त्र में टंकण भूल में सुधार नहीं हो पा रहा हैं | अतः आप ऋषि दयानंद की सत्यार्थ प्रकाश का अष्टमसमुल्लास (प्र० १७२ देखे) और अन्य जिज्ञासाओ के लिए संपूर्ण सत्यार्थ प्रकाश व ऋषि भाष्यो का वेदा अध्यन करे |

ओम् 

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