Monday, 1 August 2016

आत्मोन्नति


                      ओ३म्

आत्मोन्नति, यानी आत्मा कि उन्नति, स्वंय कि उन्नति, कैसे और किस प्रकार करनी होती हैं, यह विषय गंभीर चिंतन का हैं | आत्मा जो सदैव जाग्रत रहती है, कभी सोती नहीं उसके कल्याण के लिए क्या किया जाए | अब प्रश्न यह उठता हैं के हम पहले शरीर कि उन्नति करेंगे फिर आत्मा देखी जाएगी | शारीरिक उन्नति भी बहुत आवयश्क हैं शारीर स्वस्थ रहेगा तो हम आत्मिक उन्नति पर कार्य कर सकते हैं परन्तु लोग आत्मोन्नति पर आज कोई कार्य ही नहीं कर्ता | आत्मा जिसे देखा नहीं, जाना नहीं, अनुमान करते हैं, उसकी उन्नति में समय क्यों नष्ट करे (?)| परन्तु यदि हम शारीरिक उन्नति के उपरांत भी आत्मिक उत्थान नहीं करते तो हमारा शारीरिक स्वास्थ भी प्रभावित होता ही हैं | शरीर कि उन्नति तब होगी जब आपको सही ज्ञान होगा, यानी दोनों विकास आपस में जुड़े हैं दोनों ही नहीं अपितु तीनो सामाजिक उन्नति भी | शतायु होने के लिए आपको धर्म पर चलना होगा क्यों के अधर्म से ही आयु घटती हैं | धर्मं क्या हैं यह जानना बड़ा आवश्यक हैं | शरीर को तो हवा पानी भोजन से पुष्ट रखा जा सकता हैं पर कैसा वातावरण हो जिस से शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे | अतः हमें सही ज्ञान चाहीए धर्म का, वेद का क्यों के हम मनुष्यों को धर्मं ही भिन्न करता हैं अन्य जीवो से |
'इच्छाद्वेशप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगम'
अर्थात इच्छा द्वेष प्रयत्न सुख दुःख ज्ञान ये आत्मा के लिंग हैं अर्थात आत्मा के चिन्ह हैं | इस श्लोक में ज्ञान धर्म हैं | आत्मा का भोजन ज्ञान हैं क्योंकी इसी के माध्यम से वह परमात्मा के सम्प्रेषण का लाभ उठा सकती हैं | अब कैसे करे सही ज्ञान प्राप्त जिस से हमारी आत्मा का हमारे जीवन के उद्धेश्य कि पूर्ति हो | जिस कारण हमें मनुष्य का शरीर मिला हैं उसकी ओर हम बढे | तो इस पर हमारे ऋषि मुनि पूर्व में कार्य कर के मुक्ति की ओर बढ़ चुके हैं हमें भी उन आप्तो का अनुसरण करना होगा | आत्मोन्नति का प्रयास यदि स्वकेंद्रित रहते हुए किया तो लाभ ना होगा अतः इसे उसी क्रम में करना होगा जिस क्रम में हमारे आप्त पूर्वज व अनेको ऋषियों ने कि याने खुद बढे और दूसरों को भी बढावे सामाजिक उन्नति, समाज सेवा के भाव के साथ किये निज उन्नति कर प्रयास ही सफल होंगे | आइये इसका सरलतम मार्ग को जाने, यह मार्ग सरलता से पार किया जा सकता यदि हम तीन चीजों के क्रम से चले | स्वाध्याय, सत्संग, संध्या एक-एक करके इनको समझते हैं |


स्वाध्याय : यानी नित्य आर्ष साहीत्य का अध्यन करना | आर्ष साहीत्य यानी ऋषियों के ग्रन्थ जो केवल सत्यासत्य के निर्णय के लिए लिखे गए निर्भीकता से | सम्पूर्ण वैदिक वांग्मय ४ वेद, ४ उपवेद, ४ ब्राहमण ग्रन्थ, ११ उपनिषद, षडदर्शन, इतिहास ग्रन्थ रामायण, महाभारत, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और सम्पूर्ण आर्ष साहीत्य जो हमें वेद सम्बन्धी ज्ञान देते हैं | इसके साथ ही हमें अपने महापुरुषों के जीवन चरित्र, राष्ट्र का इतिहास, समकालीन परिस्तिथियों,नव अविष्कारो,वैज्ञानिक सिधान्त इत्यादि का अध्यन चिंतन करते रहना चाहीए | धर्म पर चलते हुए धर्मं कि स्थापना के लिए धर्मं का ज्ञान चाहीए | धर्म के ज्ञान को नीतिपूर्वक ही विस्तारित किया जा सकता हैं | निति कि शिक्षा तो आर्ष साहीत्य दे देगा पर उस ज्ञान को कैसे प्रसारित किया जाए उस निति का पालन कैसे किया जाए ये हम इतिहास, महापुरुषों के नितिपालन, समकालीन परिस्तिथियों के अध्यन के बाद ही समझ सकते हैं | अतः हमें जिज्ञासु तो बनाना ही होगा क्यों के मुमुक्षु का मार्ग जिज्ञासु होकर ही जाता हैं | और अध्यन भी उस प्रकार नहीं जिस प्रकार आप अपने पाठ्यक्रम को पढते है पढ़ लिया और परीक्षा दे दि |  ऋषियों के मानसिक स्तर को समझना सरल नहीं, आज के लेखको से ऋषियों के लेखनी कि तुलना करना भी उचित नहीं | अतः चिंतन करते हुए ही अध्यन सार्थक होगा | ऋषि दयानंद कि अमरकृति सत्यार्थ प्रकाश उन अच्छे-अच्छे विद्वानों को समझ नहीं आती जो अपने क्षेत्र के विद्यां हैं जैसे आज के चिकित्सा,अभियांत्रिती,विज्ञान,कला,वाणिज्य इत्यादि विषयों के छात्र | यह समस्या बड़ी सुनने में आती हैं के समझ नहीं आरहा बड़ी क्लिष्ट भाषा हैं | सत्यार्थ प्रकाश ने हिंदी को स्थापित करने में बड़ा योगदान किया | आज लोगो कि भाषा उच्चारण इतना बिगड चूका हैं के वे आर्ष ग्रंथो को भाषा कि क्लिष्टता का दोष देते हैं | जिज्ञासु के लिए क्या कठिन हैं ? जो जानना हैं सो जानना हैं प्रश्न के उत्तर मिले बिना मन कि शान्ति किसे मिलती हैं | और जो प्रश्नों के उत्तर ना मिले उनपर विद्वानों से चर्चा करे, पर विनयी होकर | योग दर्शन में स्वाध्याय का इतना महत्व बताया है के आप स्वाध्याय से इष्ट देवता की प्राप्ति कर सकते हैं |
स्वाध्यायदिष्टदेवतासंप्रयोगः ||४४|| साधनपाद
अर्थात स्वाध्याय से इष्ट देवता का साक्षात होता है | इष्ट देवता का साक्षात अर्थात इक्छित विषय की प्राप्ति |

अच्छी पुस्तके अच्छे मन का निर्माण करती हैं, स्वस्थ मन में ही स्वस्थ शरीर रहता हैं यह तो हम सब जानते है | ज्ञान बढ़ाने के और भी माध्यम हैं जैसे के ये अंतरजाल (इन्टरनेट) या दूरदर्शन (टेलिविज़न) पर इसको भी बड़ा संतुलित ही प्रयोग करना होगा क्यों के अच्छे से ज्यादा यहाँ से बुरा प्रसारित होता हैं | सो भाषा के बंधन से भी बाहर आये और यह अतिरिक्त बात भी मैं लिखना चाहूँगा के सम्पूर्ण वैदिक वांग्मय संस्कृत में हैं सो हर आर्य का ये कर्तव्य बनता है के वह अष्टाध्यायी विधि से संस्कृत सीखे | इसके लिए रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा पंडित ब्रह्म दत्त जिज्ञासु व उनके शिष्य प० युधिस्ठिर मीमांसक कि सरलतम विधि से अध्यन करे यदि अष्टाध्यायी का कोई विद्वान आपको नहीं मिलता हैं | संकल्पित भद्रजन ६-७ मॉस में सरलता से संस्कृत सीख जायेंगे |
सत्संग : यानी आर्यो(श्रेष्ठ लोगो) का संग | सत्यवादी लोगो का संग | अपनी मित्र मंडली ऐसी बनाये जो अच्छे विचारों वाले हो वरना आपके विचार भी वे दूषित कर देंगे | भाषा कि शुद्धता होवे, चरित्र कि श्रेष्ठता होवे, धर्मात्मा एवं ज्ञानी होवे | और विद्वानों को ढूंडते रहे आसपास कोई ऐसा सन्यासी आवे जो वेदों का विद्वान हो, साधना करता हो अर्थात ध्यान एवं समाधी के लिए अभ्यासरत हो | ऐसे विद्वानों को अपना अतिथि बनावे उन्हें घर पर ठहराव उत्तम भोजन करावे और ज्ञान लेवे | अध्यात्मिक ही नहीं अपितु राष्ट्र और समाज कि समस्याओ का भी प्रश्न उठावे | किसी से कुछ सिखने के लिए आपको विनयी होना होगा | यह भी आवश्यक नहीं के आपका मस्तिष्क संतुष्ट हो जाए, हर एक उत्तर से, पर विद्वता पूर्वक ही अपनी चर्चा को आगे बढावे उन विद्वान या सन्यासी पुरुषों के स्वभाव अनुकूल ही प्रश्नोत्तर करे | किसी प्रकार के विवाद में ना पड़े शीलता का गुण भी हमें धारण करना होगा | और यह भी उद्देश्य हैं सत्संग का अच्छे लोगो से उनके अच्छे गुणों को हम धारण करते जाए | जिसमे जो उत्तम लगे वो ले, जो बुरा लगे उसे कभी ना ले | यही प्रार्थना आर्यवर्त के बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समाहरोह में कराई जाती थी के हम अपने आचार्यो के अच्छे गुणों को धारण करे अन्य को नहीं | विचारों में अद्भुत परिवर्तन आता हैं जब हम विद्वानों कि संगत में रहते हैं | वास्तविक सन्यासियों से भेट का आनंद आप स्वयं अनुभव करेंगे जब आपको साधना करने वाले सन्यासी मिलेंगे | दुर्जनों के बीच बुरे विचार आते हैं और सज्जनो के बीच अच्छे आप इसे मष्तिष्क कि तरंगों का प्रभाव कह कर समझना चाहे तो वैसे समझ ले पर इसकी सत्यता तो आप स्वयं अनुभव करेंगे जब खुद प्रयोग करेंगे | अतः बुरे लोगो का साथ छोड दे, अच्छे मित्र रखे, विद्वानों को ढूंडते रहे जहा मिले उनका सामर्थ्यपूर्वक सत्कार करे और अपने प्रश्न रखे | प्रश्न न हो तो कल्याण का मार्ग पूछे | कहने का अर्थ हैं यदि विद्वान मिले तो उस से कुछ ना कुछ ज्ञान ले के ही रहिये इसी में बुद्धिमत्ता हैं | और जब विद्वान संन्यासियो के पास जाए तो उनके लिए कुछ भेट लेते जाये क्यों के जो विशुद्ध सन्यासी होते है, उनका दायित्व समाज पर ही होता है और जब हम किसी से कुछ ले तो हमारा भी कर्तव्य है के हम कुछ वापस दे उन्हें अपने सामर्थ्यानुसार |


संध्या : संध्या कहते हैं ध्यान को, ईश्वर का ध्यान नित्य किया जाता हैं | आर्य मनुष्योत्पत्तिकाल से ही संध्या कर रहे हैं | दिवस में कम से कम २ बार संध्या करने का आर्यो का विधान रहा है | संध्याविधि करने के बाद बाद लोग समझते हैं वे निवृत हो गए ईश्वर कि उपासना से | संध्याविधि के साथ २ समय संधिकाल में प्रातः और सायं देवयज्ञ अर्थात हवन करना मनुष्यों को अनिवार्य हैं | ऋषि दयानंद ने भी सब के लिए उपदेश किया इसका | आर्य समाज के छठे नियम में आत्म सुधार को सबसे पहले कहा हैं | परमात्मा के लिए ध्यानस्त होकर समाधि में जाना केवल मनुष्य शरीर में संभव हैं और यदि हमने इस शरीर का यथायोग्य लाभ ना उठाया या कम से कम ईश्वर ध्यान के लिए पुरुषार्थ ना किया तो यह अधर्म हुआ अतः सन्ध्योपासना सबको करनी चाहीये | आज तो लोग परमात्मा के सही स्वरुप से ही दूर हो गए हैं | जड़ को ध्यान का माध्यम बताते हैं तो चेतन परमात्मा का ध्यान कहा से कर पाएंगे इसीलिए स्वाध्याय प्रथम उसमे जो संशय हो वो सत्संग से दूर करे और फिर संध्या | ज्ञान जानने के बाद, यम नियमों का पालन करते हुए ईश्वर कि उपासना करना ही प्रमुखता से आत्मोन्नति का साधक हैं | उपासना, उप अर्थात निकट, आसन यानी बैठना ईश्वर के निकट बैठना | निकट तो हम सब हैं ही पर जो मन कि चंचलता के कारण हम उसकी निकटता का अनुभव नहीं कर पा रहे वो उपासना के पुरुषार्थ से होगा | ब्रह्ममुहूर्त में और सायकाल, आसन सिद्ध करने का प्रयास करे | ९ घडी अर्थात ३ घंटे ३६ मिनट एक ही आसान में सरलता से बैठे रहने पर आसन सिद्ध माना जाता हैं | यह धारणा का विषय लेते हुए करे यानी कोई एक स्थान जिस पर ध्यान लगाना हैं यह स्थान बदला नहीं जाता | फिर “ध्यान” आता हैं, यह ध्यान तो बालावस्था से ही करते रहना चाहीए पर इस ध्यान पर अत्यधिक समय वानप्रस्थ में दिया जा सकता हैं २५ वर्ष दिए गए हैं हमें वहा से समाधी तक पहुचने के लिए तपस्वी साधक तो जल्द पहुच जाते हैं स्त्रिया स्वभाव से पवित्र होने के कारण और जल्दी पहुच जाती हैं | धारणा, ध्यान और समाधि को संयुक्त रूप से “संयम” कहा जाता है |
प्रथम २ माध्यम से हम इस जीवन में यश्यस्वी होंगे ज्ञानी होंगे पर संध्या से हम अपने जीवन के बाद कि तैयारी करते हैं मोक्ष के लिए तो कई जीवन प्रयास करते रहना होता हैं और परमात्मा कि कृपा ऐसी रहती हैं के जहा से आप यह शरीर त्यागेंगे अगले जन्म में थोड़े ही प्रयास में साधना के उस स्तर पर पहुच जाएँगे | अतः हम आत्मोन्नति कि ओर उन्मुख रहे | ओ३म् नमस्ते

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