वैदिक संस्कृति में देवता
माना जाता हैं के हमारे यहाँ ३३
करोड़ देवी देवता हैं | मैं सहमत हू अपितु
मैं तो संख्या और ज्यादा होने का अनुमान रखता हू | ३३ करोड़ संभवतः यह बता रहा हैं के बहुत से देवता रहे हैं संख्या अगण्य हैं | हम लोंग देवता और देवी शब्द का अर्थ ही भूल गए हैं जो सिर्फ
३३ करोड़ पर रुक गए | हमारी तो संस्कृति
ही देव संस्कृति कही गयी हैं | देव संस्कृति अर्थात दूसरों को देने वाली संस्कृति | क्यों की हमारे यहाँ तो सदैव से लोंग देव गुणों से ओतप्रोत
रहे | इस लेख में हम
देवता का अर्थ स्पष्ट करेंगे | वैदिक संस्कृति में देवता का अर्थ भिन्न हैं और वेद मंत्रो का देवता भिन्न हैं
| वेद मंत्रो में
उसके विषय को देवता कहा गया हैं | अन्य अन्य ऋचाओ के देवता भिन्न हो सकते हैं |
दैव संस्कृति देने वाली होती
हैं जबकि राक्षस संस्कृति लेने वाली | हमारी दैव संस्कृति
ने नारा दिया “सर्वे भवन्तु सुखिनः” सब सुखी रहे कोई दुखी ना रहे | यह तो तभी हो सकता
हाई जब निस्वार्थ सेवा का भाव हम में रहे मानव मात्र के लिए | भारत भूमि पर आक्रमण करने वाले सिर्फ लूट अत्याचार कर के स्वं को राक्षस
संस्कृति सिद्ध किया | मनुष्य संस्कृति कहते हैं मिली-जुली लेते भी हैं और देते भी | हमारा देश अभी भी
बचा हुआ हैं इसका सांस्कृतिक पतन तो हुआ हैं | देवता जहा बहुलता
में होते थे वहा मनुष्य होने लगे | अवैदिक संस्कृति के
आने से राक्षसी प्रवर्तिया भी हमारे समाज में आ गई | महर्षि दयानंद ने आर्यो
के सांस्कृतिक पतन को रोकने के लिए आर्यो के नियम में यही बात दोहराई हैं “संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।“
“प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिये, किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।“
“सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब
स्वतंत्र रहें।“
क्या उत्तम बात कही उन्होंने |
देवता कहते हैं देने वाले को | जो दूसरों को सिर्फ दे बिना कुछ वापस लेने की इक्छा के |
इस प्रकार जो कोई भी यह दैव गुण रखता हैं उसे देवता कह सकते हैं |
इस प्रकार देवता २ प्रकार से वर्गीकृत होते हैं एक जड़ और एक चेतन |
जड़ देवता ३३ हैं | ८ वसु, ११ रूद्र, १२ आदित्य, १ यज्ञ,
१ विधु ये कुल ३३ जड़ देवता कहे गए हैं |
पहले हम इनका विवरण देते हैं |
८ वसु हैं – सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र,
पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु और आकाश
११ रूद्र हैं – दस प्राण और ग्यारहवी जीवात्मा
१२ आदित्य हैं – बारह मास
जड़ देवताओ का पूजन कैसे किया
जाए अब यह प्रश्न उठता हैं | क्या धुप, दीप, अगरबत्ती से इनका पूजन हो जाएगा | नहीं , जड़ देवता का पूजन देव यज्ञ से होगा | हवन करिये वातावरण
में जो गंदगी हम फैला रहे हैं वह साफ़ करना भी हमारा कर्तव्य हैं | प्रतिक्षण कितनी मृत त्वचा गिरती हैं | वायु हम कितनी
अशुद्ध करते हैं और वातावरण से जो भी अन्न लेते हैं उसमे लगभग सभी जड़ देवताओ का
योगदान हुआ | हवन कर के हम वापस उनका कुछ अंश उन देवताओ को लौटा देते हैं | और इसीलिए कहा गया के यज्ञ से बचा हुआ ही हम ले | हम यज्ञ की अग्नि में यह कहते हुए समिधा डाले के इदम नमम् | यह मेरा नहीं प्रकृति का प्रकृति को लौटते हैं | दीप अगरबत्ती तो
अशुद्ध रूप आगये बिना जिस से किसी भी लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती |
अब आते हैं चेतन देवताओ पर और
उनके पूजन पर | चेतन देवता ५ कहे गए हैं
१ परमात्मा, गुरु, माता-पिता, पति के लिए पत्नी और पत्नी के लिए पति, और अथिति
सम्पूर्ण वेद हमें सवितु देव
परमात्मा के बारे में बताते हैं | मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव
परमात्मा का ध्यान करना उसके
अधिक से अधिक गुणों को आचरण में लाना ही उसकी सच्ची पूजा हैं |
माता पिता का श्राद्ध और तर्पण
करना उनकी पूजा हैं | यानी श्रद्धापूर्वक धर्मानुसार उनकी आगया माननी चाहिए |
सबका गुरु परमात्मा हैं | पर भिन्न विषयो में जिन तपस्वियों ने तप किया हैं उनको उन विषयों पर गुरु
बनाना चाहिए | और वे गुरु जो समाज उद्धार के लीये शिक्षा दान करे जो पदार्थ का तत्वों का
ज्ञान कराये वह गुरु देव हैं |
विवाह यज्ञ हैं जो समाज हित के
लिए कहा जाता हैं | वैदिक समाज में पति-पत्नी एक दूसरे को ईश प्राप्ति में सहायता करते हैं | यही विवाह का उद्देश्य होता हैं अतः वे देवी-देव कहे गए हैं एक दूसरे के लिए |
अतिथि को हम लोगो ने मान लिया
हैं के जो बिना तिथि के आ जाए अरे बिना तिथि के तो घर चोर-लुटेरे भी आ जाते हैं | अतिथि उसे कहते हैं जिसका आचरण अच्छा हू | जो धर्मानुसार
व्यहवार करता हो | और उसमे दैव गुण हो |
जड़ पूजा का अर्थ सिर्फ इतना हैं
के उन तत्वों का यथा योग्य उपयोग किया जाए | चेतन की पूजा यह
हैं के उस व्यक्तित्व के अधिक से अधिक अच्छे गुणों को आचरण में लाया जाए | इसी प्रकार जड़ और चेतन पूजा की जानी चाहिए |
उपरोक्त मान्यता अनुसार यहाँ
देव ही हुए हैं सदैव | अपने धर्म ग्रंथो का अध्यन ना करने की वजह से हमारे यहाँ इतने भ्रमात्मक
देवताओं का निर्माण हो गया हैं | अभी भी नित्य नए देवताओं का निर्माण हम कर लेते हैं | बिना आचरण समझे हम बस नाम दे कर मंदिर में शिव लिंग के किनारे एक मूर्ति गढ़
देते हैं | होना यह चाहिए के हम नित्य ऋषियों के ग्रंथो का अध्यन करे | परमात्मा का ध्यान करे और आर्यो के महान देवताओं के गुणों को अपने अंदर लाये | हम भी अपने अंदर दैव गुण लाये तो देखिये ऐसा करने पर राष्ट्र धर्मं संस्कृति
का उत्थान होना निश्चित हैं |
Labels: धर्म एवं अध्यात्म
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