धर्म-अधर्म
आंग्ला भाषा में इसका कोई शब्दानुवाद नहीं हैं | ऐसा अद्भुत शब्द जिसमे अनेको अनेक अर्थ छुपे हुए हैं यह एक शब्द
जिसके पालन में अनेको अनेक शूरवीर विद्वान बलिदान हो गए | पर आज अज्ञानता और अविद्या का प्रसार जब इन अधिक हैं इस शब्द को
संप्रदाय के स्थान पर प्रयोग किया जाने लगा हैं | ईसाई धर्म, इस्लाम
धर्म, हिंदू धर्मं इत्यादि जब के धर्म शब्द का प्रयोग इन शब्दों के साथ
अधर्म हैं कारण हैं धर्म कि परिभाषा लोगो को पढ़ाई नहीं गई | हम आर्यो कि वैदिक शिक्षा प्रणाली लुप्त प्राय हो रही हैं इसी कारण
लोग धर्म का अर्थ नहीं समझते और अधर्म बढ़ता जा रहा हैं |
धर्म कि अनेक परिभाषाये हैं एक सबसे सरल भाषा में हैं जो सुख दे वो
धर्म हैं “सुखस्य मुलम् धर्म” सुख का मूल धर्म हैं | इतने से अन्य परिभाषाये सिद्ध हो जाती हैं महाभारत में धारण करने
से धर्म को समझाया गया हैं व्याकरण कि द्रष्टि से ये सही हैं | धर्म ‘धृ’ धातु
से बना हैं जिसका अर्थ हैं धारण करना अर्थात धारण,ग्रहण अपनाने योग्य गुण या जड़ के लिए उचित प्रयोग | महाभारत में हि अहिंसा को परम धर्म बताया हैं | यानी हम मनुष्यों में अहिंसा परम धारणीय गुण हैं | सत्य, न्याय, वेद, धर्म
यह शब्द कई बार एक के स्थान पर दूसरे प्रयोग किये जाते हैं | क्यों के यह सब धर्म के हि अन्य पर्याय हैं अर्थ समझने के पश्चात | सत्य धर्म असत्य अधर्म, न्याय
धर्म अन्याय अधर्म, वेद
मार्ग पर चलना धर्म अवैदिक मार्ग पर अधर्म इत्यादि | यह सब और अन्य धर्म समानार्थी शब्द मनुष्यों को सुख देते हैं
विपरीत दुःख पहुचाते हैं अज्ञानी मनुष्य समझ नहीं पाते के उनके दुःख का कारण अधर्म
हैं | विद्वानो कि भाषा में धर्म वो सिद्धांत हैं जो मनुष्यों कि शारीरिक, आत्मिक और और सामाजिक उन्नति करते हैं | मनुस्मृति में महर्षि मनु ने बताया हैं “आचारः परमो धर्मः” “अर्थात अच्छा आचरण परम
धर्म हैं | महाराज मनु और समझाते हैं के “न लिंगम धर्मकारणम्” हमारे वस्त्र, टिका, माला, आभूषण
इत्यादि बाहरी चिन्ह हमें धार्मिक नहीं बनाते हमारा अच्छा आचरण हि प्रमुख हैं |
संप्रदाय विशेष के नाम के आगे धर्म शब्द जोड़ना अधर्म हैं व्याकरण
और वचन कि सत्यता कि द्रष्टि दोनों से | लोग यह
भी कह देते हैं के वे सनातन धर्म मानते हैं | धर्म तो सनातन होता हि हैं सनातन अर्थात सदा से हैं सदा से रहेगा | यहाँ सनातन आयु हुई नाम नहीं | आपसे कोई नाम पूछे तो आप अपनी आयु नहीं बताएँगे | जल पात्र में जल भरना धर्म कहा जाएगा जब से वो पात्र बना जब तक वो
रहेगा | पात्र के टूटने के पश्चात उसके पदार्थ का यथा योग्य उपयोग धर्म कहा
जाएगा | इसी प्रकार हम मनुष्यों कि उत्पत्ति के साथ परमात्मा ने हमें वेद
के ज्ञान प्रदान किया इसलिए स्वंय को वैदिक धर्म का पालक कहना गलत नहीं होगा | जब तक मनुष्य हैं वेद का ज्ञान रहेगा और वेद का पालन करने वाले
आर्य रहेंगे | वेद का बताया मार्ग हि श्रेष्ठ हैं इसलिए आप आर्य धर्म भी कहे सकते
हैं अपितु धर्म तो सदैव श्रेष्ठ होता हि हैं पर वेद आर्य बनाने को कहते हैं इसलिए
आर्य धर्म भी गलत ना होगा ये बताने को के हम वेद में वर्णित परमात्मा कि आज्ञा को
जानते, मानते और पालन करते हैं | हिंदू
धर्म कहना २ कारणों से सही नहीं पहला तो हिंदू शब्द वेद का नहीं ये सिंधु शब्द का
अपभ्रंश हैं दूसरा पश्चिम से आये आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्थान नाम दिया और क्यों
के कोई और मान्यता नहीं थी इसलिए यहाँ रहने वाले सब हिंदू | तब भी यहाँ अनेको संप्रदाय थे एक का मत दुसरे से विरोधाभाषी तो लोग
ग्रहण क्या करे | एक साथ दो विपरीत गुण ग्रहण नहीं किये जा सकते | हमारे आर्यावर्त (वर्तमान में भारत) में रहने वाले सभी लोग हिंदू
हैं | जैन, सिख, पारसी, बौद्ध, वैष्णव, शैव, शाक्त, यहाँ
तक कि पारसी, मुसलमान और ईसाई इत्यादि सम्प्रदाय भी | हिंदू सब का समागम हैं यहाँ नास्तिक, वाम
मार्गी, वेद विरोधी भी स्वंय को हिंदू कह के वैदिक धर्म के महा पुरुषों को
गाली देता हैं | सर सय्यद अहमद खा ने भी माना था के हिन्दुस्थान में रहने वाले सभी
लोग हिंदू हैं | यहाँ मुसलमान भी आगये और देखा जाए तो यहाँ थोडा बहुत प्रभाव सभी पर
पड़ा हैं मुसलमानों में पौराणिको कि बहुत सी रश्म ली हुई हैं उदहारणतः विवाह के
समय हल्दी कि | मुसलमानों को शरिया कि स्वतंत्रता मिली हुई हैं पर सामाजिक लोक लाज
कि वजह से बहुत कम हि बहु विवाह का पालन करते हैं क्यों के बहुशंख्यक समाज एक
स्त्री कि श्रेष्ठ मान्यता पर चलता हैं | पौराणिक
मत वेद से ज्यादा दूर नहीं हैं बस थोडा सा भेद हैं पर समस्या यही हैं के सब कुछ
सही हैं के सिद्धांत, मत
संप्रदायों को धर्म का नाम देकर धर्म पर बहस नहीं का नाम देकर चर्चा हि बंद कर दी
जाती | पर सत्य प्रेमियो को जैसे हि वेद मार्ग मिलता हैं वे उसे ग्रहण
करते हैं चाहे पौराणिक हो या किसी अन्य सम्प्रदाय के | तो हम स्वंय को वैदिक धर्मी या आर्य धर्मी कहे यह ज्यादा उचित हैं |
अब दैनिक बोलचाल में कैसे समझे और समझाए धर्म और और धर्म को | इसे ऐसे समझिए के प्राचीन ऋषि जब जीवन के उद्देश्य कि प्राप्ति कर
लेते थे तो शारीर त्याग देते थे क्यों के कही अधर्म ना हो जाए | रामायण में २ उदहारण मिलते हैं मातंग ऋषि और शबरी ऋषिका का दोनों
ने श्री राम के सामने प्राण त्यागे प्रश्न उठता हैं श्री राम के सामने क्यों? क्यों के स्वंय कि हत्या का पाप लगता तो श्री राम ने पूछा के जीवन
के उद्देश्य कि पूर्ति हो गई उन्होंने हां में उत्तर दिया | शरीर पर इतना नियंत्रण रहता था इन ऋषियों का के ह्रदय कि गति को
नियंत्रित करते लेते थे | तो
यहाँ अधर्म क्या हैं, जैसे
रात्री में सोना धर्मं और जागना अधर्म हैं | अधिक भोजन या अभक्ष्य पदार्थ खाना अधर्म हैं | भोजन पश्चात पानी पीना अधर्म हैं क्यों के पाचक रसो को जल पतला कर
देता हैं और पाचक रस अपना उचित कार्य नहीं कर पाते परिणामतः शारीर में विभीन्न रोग
लगते हैं | इस प्रकार जड़ पदार्थो के लिए भी धर्म और अधर्म को समझा जा सकता
हैं | जो लोग मदिरापान करते हैं वो अधर्म इस प्रकार समझे के हमारे जठर
में अल्कोहोल के जाने पर यकृत कितने हि रस क्यों ना छोड़े मदिरा पच नहीं पाएगी
परिणामतः यकृत (लीवर) ध्वस्त हो जाता हैं और शराबी मृत्यु को प्राप्त होता हैं | जो लोग पान मसाला गुटखा इत्यादि खाते हैं उनके मुख कि लार व्यर्थ
में नष्ट हो जाती और भोजन करते वक्त उचित नहीं होती भूख के समय को बड़ा देती भूख
को भी कम कर देती | गुटखा
के रसायनों से मुख में कर्क रोग इत्यादि करती सो अलग तो कितना बड़ा अधर्म हैं अपने
हि परमात्मा प्रदत शरीर के साथ | ऐसे हि
समझे सही कार्य करना सही चीजों के साथ, चीजों
का यथा योग्य प्रयोग धर्म विपरीत अधर्म हैं | अधर्म पाप हैं पाप से दुःख प्राप्त होता हैं ईश्वर से हम दूर जाते
हैं |
ब्रह्मचर्य धर्म हैं, वेदानुसार
ब्रह्मचर्य पालन पश्चात संतानोत्पत्ति धर्म हैं, व्यभिचार
अधर्म हैं | और कहा गया के “धर्मो रक्षति रक्षितः” इसका लौकिक और वैज्ञानिक दोनों अर्थ हैं | वैज्ञानिक अर्थ समझने के लिए आप शारीर के अन्तः अंगों के रक्षा के
उदहारण पर चिंतन करिये आप उनकी आयुर्वेदानुसार रक्षा करेंगे वे आपके और बाह्य अंगों का शारीरिक शौच का भी ख़याल रखना होगा तो त्वचा और
स्वास्थ कि रक्षा होगी | धर्म
का पालन आयु बढाता है और अधर्म आयु कम करता हैं, “धर्म आयु वर्धते, अधर्म आयु न्युनते”* | अतः
अगर हमें धीर्गायु होना हैं तो धर्म का पालन करना होगा |
अहिंसा परम धर्म हैं पर उस अहिसा का पालन करवाने के लिए दुष्ट के
साथ हिंसा करना धर्म हैं | दुष्टों
के सामने अहिंसा का नाम लेकर नपुंसकता दिखाना अधर्म हैं | इतने उदाहरणों से धर्म शब्द के प्रयोग आप लोग समझ गए होंगे | महर्षि मनु ने बड़े विस्तार से धर्म को समझाया हैं मनुस्मृति के
श्लोक मे, विस्तार से इसलिए कहा क्यों के वैसे तो श्लोक के माध्यम से बहुत
बड़े-२ विषयों को ऋषियों ने अतिसंछेप में बताया हैं पर धर्म जितना बड़ा विषय को एक
श्लोक में बता कर पुण्यात्मा महर्षि मनु ने बहुत बड़ा काम किया हैं |
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचम् इन्द्रियनिग्रहः |
धिविर्धा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ||
अर्थात धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, घी, विद्या, सत्य, अक्रोध
यह धर्म के दश लक्षण हैं | यानी
इनके पालन से आप कहे सकते हैं के आप धर्म पर हैं |
१. धृति : सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान
इत्यादि में धैर्य रखे | इसी सम
अवस्था को गीता में भी समझाया गया हैं | और
ऋषियों ने भी कहा के जिसने प्रकृति को जान लिया वो सुखी हैं यानी बाहर सम व्यहवार
और शारीर के अंदर कि अग्नि को भी सम कर लेने वाला सुखी हैं | आयुर्वेद में वात, पित्त, कफ्फ जिसमे सम हैं वो निरोगी हैं |
२. क्षमा : इस गुण
को एक कवी ने बड़े उत्तम ढंग से बताया हैं के
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन विष विनीत विनम्र हो ||
क्षमा वीरो को, बलवानो
को शोभायमान हैं | सामार्थ्य होकर भी दोषी के सह्रदय क्षमा मांगने पर क्षमा दान देना
धर्म हैं |
३. दम : बृहदारण्यक
उपनिषद में भी प्रजापति के उपदेश में एक द दमन को बताता हैं | इन्द्रियों का दमन कर उनका स्वामित्व प्राप्त करना धर्मं कहलाता
हैं | मन को सत्य मार्ग पर लगाना धर्म हैं |
४. अस्तेय : पुरुषार्थहीन
धन ग्रहण करना | चौर्य कर्म में लोग कहेंगे पुरुषार्थ हैं नहीं वो तो पाप का कर्म
हैं पुरुषार्थ तो उसका हैं जिसने श्रम करके धन कमाया | आज कल जो रिश्वत जैसी सामान्य बात हो गई हैं वो महाधर्म हैं | पर शिक्षा मिले चरित्र निर्माण कि तब समझ आवे, वह शिक्षा तो सिर्फ वैदिक गुरुकुल में संभव हैं |
५. शौच : शरीर
कि स्वछता बनाये रखना और मन को भी सद्विचारों से स्वच्छ रखना | तन तो साफ़ हैं पर मन में अश्लील विचार भरे है तो यह भी अधर्म हैं
और शौच नहीं कहा जाएगा |
६. इन्द्रियनिग्रह : ५ ज्ञानेन्द्रियो से अच्छा ग्रहण करना और ५ कर्मेन्द्रियो से अच्छे
कर्म करना |
७. घी : बुद्धि को आत्मोन्नति के मार्ग से मेधा, प्रज्ञा और ऋतंभरा तक पहुचाना | शरीर को दुर्व्यसनो से दूर रखना और वीर्य रक्षा के माध्यम से
ब्रह्मचर्य पालन करना ताकि बुद्धि उत्तम होती जाए | सत्संग, इश्वरप्रणिधान, और अच्छे ग्रंथो (ऋषियो के आर्ष ग्रन्थ) के अध्यन से बुद्धि बढती
हैं |
८. विद्या : ईश्वर सम्बन्धी विषयों का उचित ज्ञान करना | जड़ चेतन का भेद, ब्रह्माण्ड
के अनादी तत्वों के बारे में जानकार ईश्वर प्राप्ति कि ओर लग के उस विद्या का लाभ
उठाना धर्म हैं |
९. सत्य : जो चीज जैसी हैं उसे वैसे हि मानना और पालन करना दूसरों को भी वैसे
हि बताना | जड़ को चेतन मान कर चेतन सा व्यहवार करना बहुत बड़ा अधर्म हैं |
१०. अक्रोध : सब पालन करते हैं और क्रोध पर नियंत्रण नहीं तो सब बराबर हो जाएगा | क्रोध बुद्धि का नाश करता हैं गीता में भी यही बताया हैं और बुद्धि
के नाश से विनाश होता हैं | अतः
क्रोध पर नियंत्रण करना धर्म पालन के लिए अति आवयश्क हैं |
हमें धर्म को समझने के लिए महर्षि मनु ने धर्म के लक्षणों को समझने
के लिए एक और श्लोक के माध्यम से हम पर उपकार किया हैं |
वेदः स्मृति सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मन |
एतच्चतु विर्धमं प्राहुः साक्षा द्ध म्रस्य लक्षणम ||
एतच्चतु विर्धमं प्राहुः साक्षा द्ध म्रस्य लक्षणम ||
अर्थात वेद, स्मृति, सत्पुरुषो आप्तो का आचार व्यहवार और जो आत्मा को प्रिय हैं यानी
आपके आत्मा कि आवाज यह धर्म के चार लक्षण हैं | इसके विपरीत अधर्म समझिये |
महर्षि दयानंद के शब्दों में धर्म अधर्म इस प्रकार हैं –
“जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य
का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म हैं और
इसके विपरीत जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण, सत्य
का त्याग और असत्य का ग्रहण रूप कर्म हैं उसको को अधर्म कहते हैं |”
कितनी सुन्दरता से महर्षि ने वेद और मनु महाराज कि बात को आगे बढा
दिया |
वेद में कहा 'मनुर्भव' ए मनुष्य तु वास्तव में
मनुष्य बन |
महर्षि दयानंद ने उसे भी सत्यार्थ प्रकाश के स्वमंताव्य्प्रकाश में
समझा दिया |
“मनुष्य उसी को कहना कि जो
मननशील होकर स्वात्मवत अन्यों के सुख दुःख और हानि-लाभ को समझे !! अन्यायकारी
बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे !! इतना ही नहीं किन्तु
अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की - कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल
और गुणरहित हों -उन कि रक्षा, उन्नति, प्रियाचर्ण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान
और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात जहाँ तक हो सके वहां तक
अन्यायकारीओं के बल की हानि और न्यायकारिओं के बल की उन्नति सर्वथा किया करे!! इस
काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे
प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य रूप धर्म से पृथक कभी न होवे !!”
कितनी उत्तमता से ऋषि ने वेद में बताये मानव धर्म को सविस्तारित कर
दिया |
अधर्म को भी अति संछेप में जान ले | अधर्म अर्थात पाप मनसा., वाचा, कर्मणा होते हैं |
मनसा : स्तेय
कि भावना लाना, इर्ष्या करना, मनसे
व्यभिचार करना, गलत कार्य का निर्णय लेना इत्यादि
वाचा : असत्य
बोलना, असत्य बात प्रसारित करना (अफवाह फैलाना), कड़वा बोल के दुःख पहुचना, चुगलखोरी
करना
कर्मणा : चोरी, लुट, रिश्वतखोरी, ठगी, हत्या, बलात्कार, व्यभिचार
इत्यादि
हे परमात्मा हम सब धर्म मार्ग पर चल कर आपको प्राप्त करे और अधर्म
से हम सभी दूर रहे |
नमस्ते
*यह किसी आर्ष ग्रन्थ का
श्लोक नहीं भाव से भाव से लिखा हैं अष्टाध्यायी के नियम से व्याकरण दोष संभव हैं |
Labels: समाज सुधार
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