आर्यो के नियम एवं समीक्षा
महर्षि दयानंद ने १० अप्रैल १८७५ को बम्बई (अब मुंबई) में स्थापना की
थी | उद्देश्य था ऋषियों की वाणी जन जन पहुचे विश्व का कल्याण हो | उस समाज के कुछ
वेदानुकूल नियम प्रचार्हेतु लिपिबद्ध किये गए | ऋषि की योजनाबद्ध हत्या और उसके
बाद आर्य समाजो पर आक्रमण करते करते आज आर्य समाज प्रायः उद्देश्य से दूर दीखता
हैं | खंडन आवश्यक होता हैं परन्तु सिर्फ निंदा करने वालो से हम भी दुरी बनाते हैं
ऋषि के मार्ग पर चलते हुए हम सभी वेद प्रचार कर सकते हैं | हम समीक्षा करते हैं उन
नियमों का क्यों की समीक्षा तो सबकी होनी चाहिए | और जो भी इन नियमों को मानता हैं
वह आर्य हैं और जहा सामान विचारों वाले आर्य मिलते हैं वही उनका समाज यानी आर्य
समाज बन जाता हैं | आर्य समाज किसी इमारत का या वहा के संगठन मंत्री इत्यादि का
नाम नहीं | आर्यो का समाज जो इन नियमों को जीवन में ढालते हैं वही आर्य समाज हैं |
१.सब सत्यविद्या और
जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
समीक्षा : जो भी स्रष्टि
द्रश्य्मान हैं उसको स्वरुप देने वाला परमेश्वर हैं वह उस ज्ञान विज्ञान और अपने
उनअपरिवर्तनीय नियमों को जानने वाला हैं जिस से उसने स्रष्टि की रचना की हैं अतः
आर्य सदैव कार्य कारण सम्बन्ध को मानते हुए परमात्मा के अस्तित्व को मानते रहे हैं
|
२.ईश्वर
सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी,
अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र
और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
समीक्षा : वह परमात्मा इन गुणों को धारण करे हुए हैं, यह गुण किसी
मनुष्य के लिए संभव नहीं इस से सिद्ध होता हैं के ईश्वर एक हैं और निराकार हैं और
सम्पूर्ण स्रष्टि में सामान रूप से विद्यमान हैं | उसके अन्य हम यदि किसी को ईश्वर
समझेंगे तो सत्य से दूर दुःख को पावेंगे |
३.वेद सब
सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना – पढाना और सुनना – सुनाना
सब आर्यों का परम धर्म है।
समीक्षा : संसार की जितनी भी अच्छी बाते भिन्न-२ संप्रदाय (कथित
धर्मं) पुस्तकों में हैं उन सबका श्रोत वेद ही हैं | वेद स्रष्टि के आदि में
मनुष्यों को दिया परमात्मा का ज्ञान हैं | सो सभी सज्जन मनुष्यों को लिंग-जाती
इत्यादि भेद किये बिना वेदों का प्रचार-प्रसार सभी अन्य मनुष्यों में लिंग-जाती इत्यादि
भेद किये बिना करना चाहिए | वेद सभी मनुष्यों के लिए हैं |
४.सत्य के ग्रहण करने
और असत्य के छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
समीक्षा : जो हम स्वं को सदैव सत्य पर समझेंगे और दूसरे को असत्य हम
कदापि उन्नति ना कर पावेंगे | जो हमें सत्य समझ आजावे तो बिना विलंभ हमें उसे
स्वीकार कर लेना चाहिए अन्यथा हम दुःख को प्राप्त होंगे |
५. सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके
करने चाहियें।
समीक्षा : जो हम सत्य का विचार कर के कार्य ना करेंगे तो हम
सिर्फ अपने स्वार्थ का कार्य करेंगे जिस से औरो को दुःख पहुचेगा और हमें प्रथम
द्रष्टा सुख भ्रमित होगा पर वास्तव में हमारे दुःख का कारण ही हमारा स्वार्थ युक्त
कार्य हैं | निष्काम भाव से कार्य करने की शिक्षा ही आर्यो ने सदैव दी हैं |
६. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात
शारीरिक, आत्मिक
और सामाजिक उन्नति करना।
समीक्षा : जो भी आर्य सज्जन वेदों का प्रचार करते हैं उनका मुख्य
उद्देश्य समाज का उत्थान करना हैं | परन्तु समाज से पहले आत्मिक उत्थान भी
प्रारम्भ करना होगा अर्थात ध्यान योग इत्यादि करना होगा और उस से भी पहले शरीर को
स्वस्थ बनाना होगा | यदि हम उल्टा क्रम अपनावेंगे तो अपनी सामर्थ्य अनुसार संसार
को लाभ ना दे पावेंगे |
७. सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।
समीक्षा : सज्जनता से बात सभी से करने को ऋषि ने इसलिए कहा क्यों के
हम भी सभी से प्रिय सुनाने की अभिलाषा रखते हैं | परन्तु धर्मानुसार अर्थात
सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का ध्यान रखते हुए यथा योग्य वर्तना चाहिए | दुष्ट
अत्याचारी को प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यहवार की चेतावनी अवश्य दी जानी
चाहिए |
८. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
समीक्षा : जिस से हम परमात्मा से दूर हो जाये ऐसी विद्या अविद्या हैं
जो ज्ञान हमें ईश्वर तक पहुचाए केवल उसी की वृधि करनी चाहिए ताकि हम मानव जीवन के
उद्देश्य की प्राप्ति कर सके |
९. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिये, किंतु
सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
समीक्षा : आप यदि अपनी उन्नति से संतुष्ट होकर रुक गए तो में समाज की
उन्नति भी रुक जाएगी | हमें अपना स्वार्थ छोड कर सबका कल्याण हो ऐसा ही उद्योग
करना चाहिए |
१०. सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और
प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें।
समीक्षा : जो सबके हित का हो वो करने को हम बाध्य होंगे जो सबके हित
का होगा वह हमारे हित का भी होगा | अतः हम स्वतंत्र हैं हितकरी नियमों का पालन
करने को |
Labels: समाज सुधार
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home