Monday, 1 August 2016

अद्वैत से त्रैत तक : मायावाद मीमांसा

मायावाद जिसे हम नवीन वेदान्त भी कहते है | ऐसे हमारे बहुत से भाई है जिन्हें इस प्रकार की भ्रान्ति हों गई सब कुछ ईश्वर है सत्य कुछ भी नही सब मिथ्या है | जीव ईश्वर से निकलता है उसी में विलय कर जाता है इस सिद्धांत से जगत निर्माण के कारणों को ही भंग कर दिया | उन्हें साधना में समस्या तों होनी ही है | क्यों के आगम ज्ञान की अनुभूति के लिये आगम ज्ञान को सही से समझना आवश्यक है | महाभारत में भी कहा गया है चार को जाने बिना मोक्ष नहीं | ये चार है राशि पुरुष, विराट पुरुष, कूटस्थ पुरुष, उत्तम पुरुष इसी से सिद्ध हों जाता है के इतना विशाल वैदिक साहित्य ऋषियों ने क्यों रचा | सांख्य दर्शन में प्रकृति को इतने सूक्ष्म स्तर से क्यों समझाया | सिद्ध तों अनेको अनेक वेद मंत्रो से हों जाता है | और अद्वैत के अर्थ को समझे तों भी क्रिया में त्रैत समझ आजाएगा | पूज्य भगवान शंकराचार्य ने जो वितंडा किया अपने समय में वो केवल उस काल के लिए था क्यों प्रस्थान त्रयी से तों सिर्फ इतना ही किया जा सकता था | यदाप्पी स्वामी जी को समय मिलता तों वो वेद पर से व्याख्या करते और अद्वैत प्रकृति और जीवात्मा की विस्तारित व्याख्या करते क्यों के वे राष्ट्रवादी और बुद्धिमान थे | हम यहाँ इस चर्चा को ऐसे ले रहे है जैसे हम आपस में अपने विद्वान सत्य प्रिय भाइयो से चर्चा करते है | आप भी अपने विवेक अनुसार पढ़े और जो बुद्धि अनुकूल लगे उसे स्वीकार करे उसके विपरीत कदापि नहीं |
आर्य : नमस्ते जी,
मायावादी : नमस्ते जी, क्या आप अद्वैत को मानते है ?

आर्य : जी हा हम अद्वैत को मानते है |
मायावादी : कैसे अद्वैत को मानते है आप ?
आर्य : हम परमात्मा के एक नाम को अद्वैत मानते है | देखे सत्यार्थ प्रकाश का प्रमाण

परमात्मा २ से भिन्न तीसरा है ये सरल भाषा में इसका अर्थ हुआ | आपने क्या भाव लिया ?
मायावादी : हम समझते है २ कुछ नहीं सब एक है सब कुछ ईश्वर है | उसी से प्रकृति और जीव उत्पन्न हुए है |
आर्य : यह भ्रान्ति आपको किस प्रकार आई ?
मायावादी : यह हमें स्वामी शंकराचार्य जी से समझ आई |
आर्य : उन्होंने तों उस समय जैन मतावलंबियों से शाश्त्रार्थ महारथ के लिए रखी थी | जहा लोग केवल प्रकृति और जीवात्मा को मानते है वह सब मिथ्या है केवल ईश्वर सत्य है यह सिद्धांत प्रतिपादित किया | उन्होंने अल्पायु में बहुत कार्य किया, नास्तिकता से खंडन के लिए अथक प्रयास किए | ये प्रयास केवल नास्तिकता के खंडन के लिए था वेद भाष्यो पर कभी स्वामी जी आते तों निश्चय ही त्रैत को प्रतिपादित करते क्यों के त्रैत के प्रतिपादन के लिए वेदांगों पर विशेष महारथ होनी चाहिए | भगवान शंकराचार्य तों मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे |
मायावादी : आप ये कैसे कह सकते है ?
आर्य : कृपया आप स्वामी शंकराचार्य की लिखित परपुजा पढ़े |
http://www.maharishidayanand.com/parapuja-by-swami-shankaracharya/
मायावादी : तों आप स्वामी जी के सिद्धांत “ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या” को गलत कह रहे है ?
आर्य : जी, ब्रह्म सत्य है पर जगत मिथ्या नहीं | ये न्याय दर्शन के प्रत्यक्ष प्रमाण के विरुद्ध है | प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम् का सूत्र नही सुना आपने ? प्रत्यक्ष को प्रमाणित करने की आवयश्कता नहीं होती है |
मायावादी :फिर आप पुरुष सूक्त और नासदीय सूक्त पर आप क्या कहेंगे |
आर्य : पुरुष सूक्त परमात्मा के स्वरुप को उसके गुणों को बता रहा और नासदीय सूक्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति बता रहा |
मायावादी : थोडा विस्तार दे |
आर्य : सूक्तो को इस लेख में रख कर चर्चा करना लेख के साथ अन्याय होगा | हम संछेप में आपको बताते है | वेद में हर ऋचा के ३ अर्थ लिए जा सकते १ ब्रह्माण्ड के दूसरा लोक के तीसरा शरीर का | इस कारण भी वेदों को त्रयी विद्या कही जाती है | राशि पुरुष शरीर, विराट पुरुष ब्रह्माण्ड, कूटस्थ पुरुष जीवात्मा, उत्तम पुरुष परमात्मा इनको जाने बिना मोक्ष नहीं | आयुर्वेद शरीर के अंदर को बताता है तों ज्योतिष विद्या ब्रह्माण्ड के बारे में बताता है | नासदीय सूक्त बताता है के सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व परमात्मा का कोई गुण व्यक्त नहीं था | कुछ व्यक्त नहीं था इसलिए कहा गया के कुछ था नहीं | अभाव से भाव की उत्पत्ति नही होती ये विज्ञान के नियमों के विरुद्ध है |
मायावादी : ये थोडा जटिल पड़ रहा है समझने में कृपया थोडा सरल वेद के प्रमाण दे सकते है |
आर्य : जी, ये देखे |
http://www.maharishidayanand.com/vedic-monotheism/
मायावादी : और स्पष्ट समझा सकते है
आर्य : ये थोडा समय दे कर पढ़े तों समझ आयेगा आपको
http://www.maharishidayanand.com/eternal-elements-of-the-universe/
मायावादी : आपने कहा व्यक्त नहीं था इसलिए था नहीं ये क्या बात हुई ?
आर्य : व्यक्त नहीं था इसलिए कहा गया कुछ नहीं था | यहाँ आपको ये समझना होगा के भाषा भावो के विनमय का माध्यम है | परमात्मा को हम इसलिए जानते है क्यों के सृष्टि है और हम है यदि केवल सृष्टि होती हम नहीं यानि शरीर में ना होते तों नहीं अनुमान कर सकते थे |
मायावादी : कैसे व्यक्त किया उसने स्वयं को |
आर्य : परमात्मा ने प्रकृति के कणों में योजनाबद्ध गतिशीलता देकर अपने गुणों से स्वयं को व्यक्त किया | जैसे अग्नि प्रकाशित या तपा नहीं सकती थी यदि वो गुण परमात्मा में ना होता | इसी प्रकार जल इंद्र सूर्य इत्यादि नाम भी परमात्मा के है और लोक में दिए गए गुण समानता के कारण | इसीलिए सभी लौकिक चीजों के नाम ऋषियों ने परमात्मा के नाम पर रखे है | कृपया इसे भी पढे
http://www.maharishidayanand.com/miscellaneous-names-of-parmatma/
मायावादी : मायावाद से हम अवतारवाद भी सिद्ध कर सकते है |
आर्य : इसीलिए तों स्वामी शंकराचार्य और उनके कार्यों का अपमान हों रहा है | अवतारवाद तों है ही हर जीवात्मा अवतार होती है | परमात्मा अवतार क्यों लेगा यदि वो सर्वत्र व्यापक है | यदि वो एक स्थान पर हों तों अवश्य उसे नीचे उतरने की आवयश्कता है |
मायावादी : सब कुछ ईश्वर से निकला है यह बात मानने में आखिर दोष क्या है ?
आर्य : दोष ही दोष है | देखिये
१.       अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती |
२.       जड़ से चेतन और चेतन से जड़ की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती |
३.       ईश्वर पर अधर्म का दोष लगता है | जब कुछ था ही नहीं तों कुछ करने का प्रयोजन किसलिए | सब ओर दुःख ही दुःख फ़ैल रहा क्यों के जीव ब्रह्म से लोक में लौट रहा |
४.       सृष्टि के निर्माण के कारण ही खत्म हों जाते है | ईश्वर ने सृष्टि रचना की ही क्यों ? उसने स्वयं को विघटित किया और फिर जीवात्माओ को दुःख संसार में डाला फिर मोक्ष के लिए भटकाया |
५.       हमें सत्य का उपदेश सत्यं वदिष्यामि ईश्वर कैसे दे सकता है जब उसने स्वयं झूठा संसार रच दिया ?
६.       यदि हम ही ईश्वर है या उसका अंश है तों पाप पुण्य नही रह जाता | ब्रह्म-ब्रह्म के साथ दुराचार करे लूट करे या कुछ भी ना करे कोई पाप कोई पुण्य नहीं रह जाता |
७.       अद्वैत की गलत व्याख्या के कारण सम्पूर्ण शास्त्र व्याकरण की भी ऐसी-तैसी हों जाती है | ब्रह्म अर्थात बड़ा तों कोई छोटा होगा तभी कोई बड़ा होगा |
मायावादी : हम तों सब चेतन मान रहे जड़ कुछ भी नहीं | चेतना का भेद है आपमें अधिक और किसी पत्थर में कम |
आर्य : चेतना युक्त में चित्त बुद्धि मं अहंकार इत्यादि तत्व होते | आपके शरीर में भी एक सत्ता ना होता हाथ की कोशिका अलग निर्देशों पे कार्य करती और पैर की अलग शिर को अधिपति नहीं कहा जाता | और आपकी मान्यता का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है न ही तर्क संगत बात है ये | देखिये यदि सब में अपनी सत्ता होती तों किसी परमाणु का इलेक्ट्रोन अपने अनुसार भागता परमाणु के नाभिक के अनुसार नहीं, २ कण परस्पर जुड़े है क्यों के वो एक सत्ता में है | हर कण व्यवस्थित तरीके से चल रहा | क्वोनटम एनटैन्ग्ल्मेंट नहीं संभव यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक शक्ति से ना बंधा हों | यानि व्यवस्थापन करने वाली एक शक्ति है जिसके अंदर सब कुछ है | इसीलिए परमात्मा का स्वरुप समझना आवश्यक है | यदि एक शक्ति के अंदर ही सब कुछ है तों जड़ में स्वयं की सत्ता मानने का अर्थ नहीं |
मायावादी : लेकिन यकायक संसार में सब प्रकट हुआ |
आर्य : हुआ पर कुछ नहीं से कुछ कैसे उत्पन्न होता ? कुछ था तभी तों उत्पन्न हुआ | जो कुछ था वो उस रूप में नहीं था जिस रूप में अभी है आगे भी नहीं रहेगा | स्वामी शंकराचार्य के मायावाद का इतना ही अर्थ समझे के सृष्टि अभी है पहले नहीं थी आगे भी नहीं रहेगी | इस से अलग कुछ अन्य अर्थ लेने से वैदिक धर्म के और विज्ञान के मूल सिधान्तो का विरोध होगा |
मायावादी : अच्छा तों आप “अहम् ब्रह्मास्मि” का क्या अर्थ लेंगे ?
आर्य : इसका ये अर्थ है के जिस प्रकार परमात्मा सम्पूर्ण ब्रह्मांडो में व्यापक है जीवात्मा इस शरीर में व्यापक है |
मायावादी : आप मायावाद मानने पर इश्वर पर अधर्म का दोष कहा वो थोडा समझाए ?
आर्य : देखिये, जब कुछ था ही नहीं तों व्यर्थ में व्यर्थ के लिए व्यर्थ का कार्य किया | कुछ नहीं के लिए कुछ नहीं और कुछ के लिए कुछ करना होता है |
मायावादी : तों फिर ईश्वर ने जगत बनाया क्यों ?
आर्य : क्यों के प्रकृति यानी वो तत्व जिस से संसार बना और जीवात्मा वो चेतन गुणों से युक्त जो एक देशी होने के कारण प्रकृति से मिलने का सामर्थ्य रखती है पर इन दोनों को मिला कर दृश्यमान जगत बनाने का सामर्थ्य रखने वाला सर्वत्र व्यापक और अनंत गुणों से संपन्न परमात्मा ही रचना कर सकता | गुणों से उसमे सामर्थ्य है और अन्य तत्व प्रकृति व जीवात्मा में विलय का सामर्थ्य कारण है इस कारण सृष्टि उत्पत्ति परम धर्म का कार्य हुआ महायज्ञ हुआ |
मायावादी : फिर सन्यासी अद्वैत से कैसे जुड़े है ?
आर्य : क्यों के अद्वैत भाव का विषय है यानी परमात्मा भाव अनुभूति का विषय है जो तर्क हम देते है उनकी अनुभूति ध्यानी को होती है | समाधी अवस्था में आनंदमय कोष में ध्यान होने पर जीवात्मा और परमात्मा और बस कुछ सूक्ष्म नाडिया ही रह जाती है | वहा ऐसा अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है के बस प्रभु ही प्रभु है और कुछ नहीं | जीव प्रकृति से अलग हों जाता है | ओ३म् में प्लुत भी बता रहा ३ तत्व जिसमे जीवात्मा प्रकृति और परमात्मा के मध्य है प्रकृति को जानकार परमात्मा को जाना जा सकता है और उसका ध्यान किया जा सकता है | निर्लेप कर्म करते हुए प्रकृति को जानते हुए बिना उसमे उलझे परमात्मा से जुड़ने यानी योग के लिए प्रयास करे | जो वो मिल जाए तों शरीर में रहने का कोई अर्थ नहीं जीवन का उद्देश्य पूरित हों गया |

मायावादी : तर्क से तों समझ आरही पर भाव से नहीं आरही बात आपकी |
आर्य : भाव से समझने के लिए आपको चिंतन करना होगा | परमात्मा को जाना नहीं जा सकता उस से उसको तों प्रकृति के गुणों से ही जाना गया है | यदि वो केवल संसार बनाता तों क्या उसका अनुमान होता ? उसने हमें भी जटिल विज्ञान युक्त ये शरीर दिया अब हम उसका अनुमान करते है | के कारण है तों कार्य होगा,कार्य हुआ है तों कर्ता अवश्य होगा | अकारण कुछ नहीं होता | और आपको महर्षि दयानंद की पञ्च महायाग्यविधि में बताई वैदिक विधि से ब्रह्म यज्ञ अर्थात संध्या करनी होगी | ध्यान करना होगा तों ये ज्ञान भाव से भी आपको समझ आयेगा | शरीर की नाडिया खुलती जाएंगी और रहस्य भी |
मायावादी : आप अथर्वेद १.१.१ के मन्त्र से क्या अर्थ लेते है उस से तों कई अनादी तत्व या सत्ताए समझ आते है |
आर्य : “सब रूपों को धारण कर के, जो तीन-गुणा-सात पदार्थ सर्वत्र व्यापते है, उनके शरीर बल वाणी का स्वामी आज मुझे देवे |”
इसकी स्वामी ज्ञानतीर्थ यति जी की २ लोको की उत्तम व्याख्या है समझे विराट पुरुष यानी ब्रह्माण्ड में सत्, रज, तम्, और ५ तन्मात्राए राशि पुरुष में वाट पित्त कफ ये ३ और निर्माण की प्रक्रिया रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा व शुक्र ये सात धातुएँ हैं। सब आपस में जुड़े है मूल प्रकृति के गुणों से निर्माण की ही व्याख्या है |
अब आप बताए आपको त्रैत के सिद्धांत में क्या दोष दिखते है ?
मायावादी : दोष तों कुछ नहीं दीखता पर मेरी अब तक की पूर्व मान्यता आपके केवल इतने संवाद से भला कैसे बदल लू ?
आर्य : क्यों नहीं सत्य को गृहण और असत्य को त्यागिये | जो चीज जैसी है उसे वैसे ही लेना चाहिए | सूर्य हमें सत्य और न्याय देता है ये सूत्र हमें वायु की रेफ्राक्टिव इंडेक्स भी बताता है के जो चीज जैसी है वैसी ही दिखती है और दूसरा परमात्मा हमें सत्य देता है और न्याय कर्ता है | कृपया पुनः-२ पढ़े सम्बंधित लेखो को पढ़े तों अति सरलता से आपको समझ आजाएगा सारे दोष युक्त मान्यताओ को आप त्यागने का साहस कर सकेंगे |
मायावादी : आपने अपना अमूल्य समय दिया उसका धन्यवाद | मै सम्बंधित लेख पढूंगा | आपको सादर नमस्ते
आर्य : आपकी विनम्रता व शिष्टता पूर्वक चर्चा करने का आपका धन्यवाद | आपको मेरा सविनय सादर नमस्ते  


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