Monday, 1 August 2016

आर्य शब्द का प्रयोग करे


 ज्यादातर लोगो का मत हैं की हमे इस विवाद मे नहीं पड़ना चाहिए की हम आर्य हैं या हिंदू | मैं भी सहमत हू इस विचार से विवाद की कोई बात ही नहीं हैं | शब्दों के अर्थ जान ले और सत्य अर्थ का गृहण करे तो विवाद की कोई बात ही ना होगी |
     आर्य शब्द वेदों मे वर्णित हैं यह संस्कृत का शब्द हैं, जिसका अर्थ होता हैं “श्रेष्ठ” या “नेक” | सृष्टि की आदि से वेदों के आदेशो का पालन करने वाले मनुष्य आर्य कहलाते आये हैं | महाभारत के पश्चात पूरी दुनिया मे फैली वैदिक सभ्यता वैदिक गुरुकुल प्रणाली टूटने लगी | अनार्य जो अशुद्ध बोलते थे उनकी संख्या बढ़ने लगी | नए-नए पंथ (कथित धर्मं) चले | जिन देशो का भारत से सम्बन्ध टूट गया वहा सिर्फ भारत की कहानिया ही रह गई | भारत की सीमाओं पर सिंधु प्रदेश स्थित था जो फारस(परसिया अब इरान ) और अर्व (अब अरब ) से आने वाले लोगो के लिए भारत का प्रतिनिधित्व करता था | यहाँ सिंधु शब्द वेद मे वर्णित सप्त सिंधु से आया | इस सप्त सिंधु का हप्त हिंदू हुआ जैसे भारत मे ही सप्ताह का हफ्ता हो गया | तो इस प्रकार एक अप्भ्रंश शब्द से भारत के लोगो को अनार्य बुलाने लगे |
     जब अर्व प्रदेश मे शिव और विष्णु पूजे जाते थे तब भारत भूमि को बड़े आदर से देखा जाता था | हिंदू शब्द के अर्थ को अच्छा लिया जाता था जब मोहम्मादिया सम्प्रदाये का अर्व मे प्रादुर्भाव हुआ तो पगन याँ मुशिरीको याँ मूर्ति पूजको को घृणा से देखा जाने लगा | उनको क़त्ल करना ईश्वर का सेवा कार्य माना जाने लगा | जब अर्व के इस्लामिक आक्रमणकारी पांच सौ सालो (६३६ ई -१२५६ ई) भारत के सिंधु प्रदेश और गांधार प्रदेश (अब अफगानिस्तान) को जीतने मे नाकामयाब रहे तो उनकी भारत के आर्यो के प्रति घृणा और बढ़ गई उनकी निराशा के साथ | ऐसे मे हिंदू शब्द का अर्थ भी बदल गया उनके किए | इरान के शब्दकोष मे हिंदू शब्द का अर्थ चोर डाकू लुटेरा कुत्ता हरमजादा अभी भी हैं | पाकिस्तान के शब्दकोष मे अंधकार भी मिल जाएगा इस शब्द का अर्थ | अर्थ तो देख कर ही समझा जा सकता हैं के शब्दकोष रचनाकार की घृणा किस हद तक हैं क्यों की चोर,डाकू,लुटेरा,कुत्ता और हरामजादा कैसे हो जाता हैं ये कोई भी भाषाविद ना समझ पाएगा | जैसे-जैसे आक्रमणकारी भारत मे अंदर घुसे हिंदू शब्द का प्रचलन बढ गया | अफगानिस्तान मे हिमालय श्रंखला मे जहा आर्यो का बड़े स्तर पर कत्लेआम हुआ था उस पहाड़ी का नाम हिंदू कुश रखा गया | कुश यानी क़त्ल जैसे खुद-कुशी खुद का क़त्ल | भारत मे इस प्रकार आर्य शब्द की जगह धीरे-धीरे हिंदू शब्द ने लेनि शुरू हो गयी | पुराणों मे हिंदू शब्द के समर्थन मे श्लोक लिखे गए | ध्यान रहे ये वही समय था जब किसी मुस्लिम चाटुकार हिंदू ने अल्लोपनिषद की रचना कर डाली थी | इस तरह के इस्लाम के प्रचार मे ग्रंथो को रचना वा प्रक्षिप्त  करना भी बेकार ही रहा |
  इन सब के बावजूद आर्य शब्द के सामान हिंदू शब्द गरिमा ना पा सका | कारण साफ़ हैं, एक अपभ्रंश जिसका अर्थ अपने हिसाब से रखा जा सकता हैं किस प्रकार एक सुन्दर अर्थ वाले वैदिक शब्द के समतुल्य हो सकता हैं | पर अंग्रेजो के समय मैकोय्ले और मैक्स मुलर ने मिल के एक षणयंत्र रचा के आर्य बाहर से आये थे | उनका उद्देश्य इस से भारत मे फूट डालो राज करो की निति को जोर देना था | उनकी इस बात का तुरंत तो उतना प्रचार ना हो सका | क्यों की ऋषि दयानंद तो जीवित थे ही उन्होंने तुरंत ही खंडन किया इस सिद्धांत का “जब आर्यो के कोई ग्रन्थ इस बात की पुष्टि नहीं करते तो ये बात क्यों माने“ | पर इस से हिंदू शब्द के प्रचार मे तेजी आई | हिंदू शब्द के विषय मे ऋषि दयानंद के शब्द थे “ऐ भाइयो ! कर्मभ्रष्ट तो हो गए हो, नाम भ्रष्ट तो ना होइये”
कितना उत्तम कथन था उनका |
आजादी के आन्दोलन मे क्रन्तिकारी आर्य भाषा का प्रयोग करते थे आर्य शब्द पर कोई विवाद ना था | सन १९५० तक राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ के गीत मे “नमो वत्सले आर्य भूमि” की पंती रही फिर ये आर्य भूमि से हिंद भूमि हो गया | शायद आज़ाद हिंद फ़ौज की वजह से और जय हिंद के नारे की वजह से | आजादी के बाद काले अंग्रेजो के शासन काल मे हम वैदिक धर्म से अधिक दूर होते गए और उतने ही दूर शुद्ध शब्दों से | दुखद बात तो ये है के आर स स जैसे बड़े और श्रेष्ठ संगठन ने भी समझौता कर लिया | कोई हमारा उत्तम अर्थ वाला नाम उच्चारण ना कर पाए और हमे पोपटलाल नाम दे दे तो क्या हम उसे स्वीकार कर लेंगे | तब भी नहीं जब वो बहुलता मे हो जाये क्यों की वो हमारा नाम ही नहीं तो स्वीकारता कैसी | अब प्रश्न ये हैं के अगर हम हिंदू शब्द को स्वीकार कर लेते हैं ये भूलते हुए के ये नाम मुसलमानों कि गुलामी के समय हमे मिला तो भी इसके घटिया अर्थ हमारी विवेकशीलता पर प्रश्न उठाएंगे | फिर अगर हम अर्व वासियो के मोहम्मद पूर्व के अर्थ को ले तो प्रथम तो वो हमे वर्तमान मे प्रचलित ना मिलेंगे द्वतीय कल को कोई और अर्थ रख देगा परसों कोई और तब कहा तक कौन कौन सा शब्द लेंगे | जब इस शब्द का कोई अर्थ ही नहीं हैं तो इसे सिर्फ इसके प्रचलन की वजह से स्वीकार करना बुद्धिमत्ता ना होगी | हम लोगो को बताये तो सही की हम आर्य हैं और हिंदू शब्द आया कहा से | हां हिंदू शब्द उनके लिए जरुर प्रयोग कर सकते हैं जो सीताराम जैसे नाम होते हुए राम के अस्तित्व को ही नकारते हैं | दिग्विजय होते हुए भी आर्यो की विश्व दिग्विजय की बात उनको हजम नहीं होती तो इनके लिए ये शब्द रखा जाए तो बुरा नहीं | अब आप क्या हैं इस आधार पर आर्य य हिंदू ये आप निर्धारित करिये |
       पर जो जागरूक हैं वेदों पर आस्थावान हैं राम, कृष्ण, दयानंद व अन्य आप्तो के पथ अनुगामी हैं उसके लिए हिंदू शब्द तो अपमान सामान होगा वह तो आर्य कहलाने लायक हैं | फिर वेद का वचन हम क्यों भूल जाते हैं जिसमे परमात्मा कहता हैं
“अहं भूमिं अददाम आर्याय |”
यानी उसने ये भूमि आर्यो को दी हैं | इस भूमि पर पवित्र हृदय लोग ही शासन करने के लिए हैं |
इस लिए गर्व से कहो हम आर्य हैं | और वेद आज्ञा अनुसार विश्व को आर्य बनाये

|| कृण्वन्तो विश्वार्यम ||

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शिव संकल्प सूत्र


                                                                                   ओ३म्
चरित्र का निर्माण मन पर नियंत्रण से होता हैं | यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र मन को नियंत्रण करने में अत्याधिक सहायक हैं | अपने बालक बालिकाओ को नित्य रात्री में शयन पूर्व इन मंत्रो से प्रार्थना करना सिखाये | स्वंय भी नित्य प्रार्थना करे परमात्मा से | शीघ्र आप जीवन में परिवर्तन देखेंगे | मंत्रो के भाष्य महर्षि दयानंद के प्रस्तुत किये जा रहे हैं |
यजुर्वेद ३४-१
पदार्थ : (यत्) जो (जाग्रतः) जाग्रत अवस्था में (दुरम् उदैती) दूर दूर भागता हैं और (सुप्तस्य) सुप्त अवस्था में भी (तथा+एव) उसी प्रकार ही (एती) जाता है | (तत्) वह (दूरं गमं) दूर दूर पहुचने वाला (ज्योतिषां ज्योतिः) ज्योतियो का भी ज्योति रूप प्रधान इन्द्रीय (एकं) एकमात्र (दैव) दिव्य शक्ति सम्पन्न (में मनः) मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शुभ संकल्पों वाला (अस्तु) हो |
यजुर्वेद ३४-
पदार्थ : (येन) जिस मन से (अपसः) पुरुषार्थी (धीराः)धीर और (मनीषिणः) मनस्वी या मननशील पुरुष (यज्ञे) सत्कर्म और (विदथेषु) युद्धादि में भी (कर्माणि) इष्ट कर्मो को (क्रन्वन्ति) करते हैं और (यत्) जो (अपुर्वम्) अपूर्व हैं और (प्रजानाम्) प्राणियों के (अन्त) भीतर (यक्षम्) मिला हुआ हैं (तत्) वह (में) मेरा (मनः) मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पो वाला हो |

यजुर्वेद ३४-३

पदार्थ : (यत्) जो मन (प्रज्ञानं) ज्ञान (चेतः) चिंतन (उत) और (धृति) धैर्य से युक्त हैं (च) और (यत्) जो (प्रजासु) प्रजाओ के (अन्तः) अंदर (अमृतम्)अमृत (ज्योतिः) ज्योति हैं और (यस्मात्) जिसके (ऋते) विना (किंचन) कुछ (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो |
यजुर्वेद ३४-४

पदार्थ : (येन) जिस (अमृतेन) अमर मन से (भूतम्) भूत (भुवनम्) वर्तमान (भविष्यत्) भविष्य सब कुछ (परिग्रहीतम्) परिगृहीत हैं | (येन) जिस मन से (सप्त होता) सात (ऋत्वाजो) द्वारा होने वाला यज्ञ (तायते) फैलाया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) अच्छे संकल्पों वाला हो |
यजुर्वेद ३४-५

पदार्थ : हे प्रभो ! (यास्मिन्) जिस शुद्ध मन में (ऋचः साम) ऋग्वेद और सामवेद तथा ((यास्मिन्) जिसमे (प्रजानाम्) प्राणियों के समग्र (चित्तम्) ज्ञान (ओतम्) सूत में मणियों के सामान सम्बद्ध हैं (तत्) वह (में) मेरा (मनः) मन (शिवसंकल्पमस्तु) उत्तम संकल्पों वाला हो |
यजुर्वेद ३४-६

पदार्थ : (यत्) जो मन (मनुष्यान्) मनुष्यों को (सुषारथिः) उत्तम सारथी (अश्वानिव) घोडो कि तरह (नेनियते) इधर-उधर ले जाता हैं और जो मन, अच्छा सारथी (अभीशुभिः) रस्सियों से (वाजिन इव) वेग वाले घोडो के समान मनुष्यों को वश में रखता हैं और (यत्) जो हत्प्रतिष्ठम् ह्रदय में स्थिर हैं (अजिरम्) जरा सहित हैं (जविष्ठम्) जो अतिशयगमन शील हैं | (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मन (शिव-संकल्पमस्तु) उत्तम संकल्पों वाला हो |
यजुर्वेद ४-१४
हे प्रभो ! तू अच्छी तरह जागता रहता हैं, इसलिए हम सुख पूर्वक निश्चिंत होकर सोते हैं, तू प्रमाद रहित होते हुए हमारी रक्षा कर और प्रातः ही पुनः हमें प्रबुद्ध कर-पुनः हमें जगा |
इस मन्त्र को नित्य कर्म विधि से अति संछेप में प्रस्तुत कर रहा हू |

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महामृत्युंजय मंत्र का रहस्य

त्रयम्बकं यजामहे सुघंधिम पुष्टिवर्धनम , उर्वारुकमिव बंधत मृत्योमोक्षीय माँ मामृतात |
अज्ञानी पुरुष मृतुन्जय मंत्र में प्रयुक्त त्रयम्बकं को तीन नेत्र समझते है |
वेद में अम्ब को दावा कहा गया है |
"शतं वो अम्ब धामानि ...इमं में अगदम कृत "
अर्थार्था हे अम्ब |मुझे आरोग्य कीजिये | यहाँ रोगी आरोग्य होने के लिए कहता है |

दूसरी जगह उक्त तीन अम्बाओ का होम करना लिखा गया है
सहा स्वस्त्रामबिकया तं जुषस्व | यजु o | ५७


इस से स्पष्ट कहा गया है की अम्बिका की बहेनो के साथ हवन करो|
यजुर्वेद |६० कहता है "त्रयम्बकं यजामहे सुघंधिम पुष्टिवर्धनम"
यजुर्वेद स्पष्ट करता है ये तीन ओषदिया है
आंबे अम्बिकेअम्बालिके माँ नयति कश्चन|
सस्स्सत्याशावाकाह सुभ्द्रिकाम कम्पिल्वासिनिम|| यजुर्वेद २३||१८

उक्त तीनो एक ही स्थान पर कहे दिए गए है |
प्रमाण पाणिनि का त्रयम्बक पद सूत्र अष्टाध्यायी ||५८


ये औषधीय कम्पिल में होती है | काम्पिल से महाभारत का कुछ समबन्ध नहीं था |
वे काशी नरेश की कन्याये थी और हस्तिनापुर में ब्याह कर आई थी, अतः यह फरुखाबाद वाला कम्पिला नहीं है |
काम्पिल नाम एक ओषधि का है , जिसके साथ ही अम्बिका आदि ओषधि उगती है |
वैदिक शाश्त्र में भी इसका प्रमाण मिलता है
माचिका प्रष्ठिकम्बष्ठ तथाम्बाम्बिकाम्बालिका| भाव o हरित्क्यदिवार्गा १७०
अतः उक्त प्रमाणों से सिद्ध हो गया की तीन अम्बा ना शिव के तीन नेत्र है ना ही महाभारत कालीन कन्याये और रानियो की चर्चाये है |
यह लेख वैदिक समाप्ति पंडित रघुनन्दन शर्मा साहित्यभूषण द्वारा लिखित पुस्तक की सहायता से लिखा गया है |

मन्त्र में मात्राओं का दोष मूल सहिंता से मिला ले 

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