सुख का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था (आर्थिक दृष्टिकोण)
आज आपको कितना भी लगे कि हम पुरानी व्यवस्था के बारे मे जानते है वो कम ही रहेगा | व्यवस्थाए आपस मे जुडी थी और सब कुछ जुड़ा था धर्म से और धर्म सुख का कारक है इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग सुख कि प्राप्ति नही करा सकता | लोग वर्ण व्यवस्था के बिगड़े रूप को जाती व्यवस्था समझने लगे है जो ठीक नही | जाती व्यवस्था जो के ज्ञाति व्यवस्था कही जाती चाहिए वो भी उत्तम थी और वर्ण व्यवस्था का एक भाग मात्र थी जिस पर हम पूर्व मे लेख दे चुके है | वर्णाश्रम व्यवस्था का मूल ध्येय समाज मे सभी को ब्राह्मण बनने का अवसर देकर ब्रह्म कि प्राप्ति कराना था | आर्यो का पूरा वैदिक समाज इस व्यवस्था के महत्व को समझता था इसलिए जैसे-जैसे वर्णों कि उत्पत्ति होती गई वर्ण व्यवस्था कि रक्षा कि गई | जो इसे नहीं मानते थे वो असुर समाज कि रक्षा के लिए बाहर कर दिए जाते थे पर सत्यता तो ये है के दुनिया का कोई भी वर्ग ले-ले हम, चार वर्णों के अतिरिक्त कोई पाचव वर्ण नही मिलेगा किसी को भी नही | आर्यो मे भी ये वर्ण हुए और दस्यु मे भी ये वर्ण हुए |
वर्ण व्यवस्था आश्रम व्यवस्था के साथ चलती है केवल एक व्यवस्था से इस व्यवस्था का ध्येय नही पूर्ण हों सकता | वर्ण व्यवस्था तो असुर समाज% मे भी चल रही है पर आश्रम व्यवस्था खत्म हों गई है | पहले हम चार वर्णों को समझेंगे तत्पश्चात वर्णाश्रम व्यवस्था को समझेंगे | सृष्टि कि आदि मे केवल एक वर्ण था ब्राह्मण जो के अमैथूनी सृष्टि से उत्पन्न हुए थे | उत्तम शरीर युक्त उत्तम जीवात्माए | संख्या बढ़ी तो फलो के स्थान पर भोजन मे अन्न के सेवन का अनुपात बढा परिणामतः प्रमाद* बढा, अनुशासनहीन लोग होने लगे | ऋषियों ने मुक्तिमार्ग को सुरक्षित रखने के लिए राजा कि आवयश्कता समझी, कई ऋषियों से निवेदन किया गया पर एक के बाद एक ने मना कर दिया फिर महर्षि मनु के पास आये उन्होंने भी औरो कि तरह मना कर दिया | पर प्रजा पीछे पड गई जन कल्याण और अति निवेदन के कारण उन्होंने राजा बनाना स्वीकार किया | उन्होंने पुनः पूर्ण धर्म कि स्थापना कि | लोकतंत्र वो भी था अर्थात लोक मे व्यवस्था पर वो वेदानुकूल थी | दुष्टों ने देवता नही चुने देवताओ से भी उत्तम ऋषियों ने सर्वोत्तम ऋषियों का चयन किया था | महर्षि के पुत्र से सूर्य वंश और पुत्री से चन्द्र वंश चला | पहले शासक ब्राह्मण ऋषि हुए पर जब राजाओ कि आवयश्कता बढ़ गई तो फिर सामाजिक आवयश्कताओ को देखते हुए क्षत्रिय वर्ण का निर्माण किया गया | गुरुकुल मे भोजन और शिक्षा मे थोडा भेद कर के क्षत्रिय निर्माण किया जाने लगा | पर राजा भी अपने कर्तव्य पालन के बाद संन्यास लेते और ऋषित्व कि प्राप्ति का प्रयास करते | और जनसंख्या बढ़ी तो राज्यों का विस्तार हुआ चक्रवर्ती राज्य कि स्थापना हुई पूरी दुनिया का राजा आर्यवर्त का राजा होता था | महाराज युधिस्ठिर आखिरी चक्रवर्ती राजा हुए | अब तक कृषि सभी करते थे पर सामाजिक आवयकताओ के बढने से वैश्य वर्ण कि और अनुवाशिक गुणसूत्रो के सही क्रम मे आगे ना जाने से शुद्र वर्ण कि रचना हूई | वैश्य गौ पालन और कृषि करते थे और जो सिखाने से भी ना सिख पाए वे शुद्र कहलाये पर विद्वानों के संग मे रहने का उन्हें अवसर मिल सके ताकि पुनः वे किसी वर्ण का चयन कर सके | शुद्र के ब्राह्मण बनने का निकट इतिहास मे महाकवि कालिदास जी से उत्तम उदाहरण क्या होगा | यद्दपि उन्होंने आर्ष ग्रंथो के स्थान पर साहित्यिक कृतिया करी पर उनकी उत्तम साहित्यिक बुद्धि कि दक्षता सभी को स्वीकार है | कृषि करने का आदेश सभी मनुष्यों के लिए वेदों मे होने से सभी लोग कृषि करते थे | ब्राह्मण से लेकर राजा तक | भला हमारे खाने का अन्न कोई और क्यों उगाए और संभव है शुद्र वर्ण के निर्माण मे बाद अन्न कि आवयश्कता कि अधिकता होने से वैश्य वर्ण उसे पूरा कर्ता रहा | अन्य वर्णों ने अपने ध्येय नही छोड़े | ब्राह्मण यज्ञ करना-कराना#, वेदों का पढ़ना पढ़ाना, दान लेना और देना इन ६ कर्मो को कर्ता रहा | क्षत्रिय ब्राह्मण और गौ कि रक्षा करना एवं समाज के सभी वर्णों कि रक्षा करने का कर्तव्य कर्ता रहा | वैश्य कृषि और गौपालन इत्यादि मे लगा | शुद्र ब्राह्मण सेवा मे लगा ताकि समय के साथ विद्यावान हों सके |
मनुष्य सुख चाहता है सुख धर्म से आता है धर्म वेद का है अतः ये सभी वर्ण आश्रम व्यवस्था का पालन करते रहे | बाल्यकाल मे सभी के बच्चे ५ या ८ वर्ष मे गुरुकुल भेजे जाते और वे ब्रह्मचर्य पूर्वक २५ वर्ष या उस से अधिक विद्या एवं शिक्षा को गृहण करते | ब्रह्मचर्य के दो अर्थ है ब्रह्म को व्यापक मान कर उस मे विचरण अर्थात सदैव वेदानुकूल आचरण करना | इसी अर्थ को थोडा विस्तार से समझने के लिए दूसरा अर्थ किया गया शरीर के वीर्य को शरीर मे खपाना | ऐसा इसलिए किया जाता था क्यों के उत्तम संताने उत्पन्न हों सके और लोग भी दीर्घजीवी रहे | देखिये महाभारत मे पितामह भीष्म अपने ब्रह्मचर्य के बल पर १७२ वर्ष कि आयु मे युवा पांडवो समेत पूरी पांडव सेना पर भारी पड़े थे और प्राणों पर पूर्ण नियंत्रण पाये हुए थे | इसके साथ-२ उत्तम संतान शुक्र धातु कि उत्तमता से होती है | क्यों के बालक कि पहली कोशिका जाइगोट कि यदि स्वस्थ@ होगी तो वो पुरे जीवन बल और बुद्धियुक्त रहेगा | इसलिए ब्रह्मचर्य आश्रम के साथ शिक्षा और विद्या का गृहण किया जाता था | २५ वर्ष तक शिक्षा एवं विद्या गृहण कर के क्षात्र अपना वर्ण निर्धारित कर्ता था | आज के समय मे जब हम असुरिय शिक्षा तंत्र मे फसे हैं ब्रह्मचर्य के साथ अध्यन, पूर्व जन्मो के संस्कार के कारण करना भी चाहे तो तंत्र उसे नही करने देगा | सह-शिक्षा(कोएजुकेशन), सेक्स शिक्षा जैसे ढोंग ऊपर से टीवी, अंतरजाल (इन्टरनेट) इत्यादि मनुष्य दुखी तो होगा ही |
जो भी वर्ण ब्रह्मचारी गृहण कर्ता वो गृहस्थ मे रह कर उसका अभ्यास कर्ता रहता | दान कर्ता और संयम अर्थात धारणा, ध्यान एवं समाधि के अभ्यास के हेतु मे लगा रहता | अपनी ही पत्नी से उत्तम काल मे उत्तम संतान हेतु प्रजनन कर्ता | सबसे बड़ा और सबसे महान आश्रम होता था है गृहस्थ एकतो अपने वर्ण का पालन दूसरा राज व्यवस्था को एवं समाज को ब्राह्मणों को सारा दान गृहस्थ आश्रम से ही आता था क्यों के बाकी के तीनो आश्रम विद्या से जुड़े थे केवल ये आश्रम शिक्षा से जुड़ा हुआ था | पति पत्नी एकदूसरे के मोक्ष मे सहायक होते थे | आज के समय मे पति का पत्नी से प्रेम और पत्नी का पति से प्रेम मुक्ति के भाव से कम और आर्थिक कारणों से अधिक रहता हैं | दान के भाव तो लोगो मे वैसे भी न्यून हों गए क्यों के आंग्ल लोगो कि कर व्यवस्था मे लोग बुरी तरह फसे हुए है | समाज अब दान से नहीं अंग्रेजो के समय से जबरदस्ती लगाए हुए कर और उनके द्वारा बनाये गए निकाय मे बनी उत्कोच(रिश्वत) व्यवस्था से चलता है | और गृहस्थ मे ही पुरे जीवन दम्पति फसे रहते है वानप्रस्थ को जाते ही नही | हा कुछ एक जिन्हें ज्ञान नही वे सीधे संन्यास ले लेते है जो के वैदिक व्यवस्था के नियमों के प्रतिकूल है | संन्यास कहते है अलग होने को, प्रकृति से परमात्मा के लिए | बस भगवा पहन लेने से संन्यास नही होता उस से पहले एक बड़ा आश्रम है वानप्रस्थ | हा ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे सन्यास लेने वाले अनेक महापुरुषों के उदाहरण मिलेंगे पर आज के आडम्बर काल मे इसमें भी अपवाद मिल जायेंगे |
वानप्रस्थ अर्थात वन को प्रस्थान एवं संन्यास कि तैयारी करी जाती | यहाँ वर्ण किसी का कोई भी हों हर कोई ब्राह्मण बनने का अभ्यास कर्ता | सत्यार्थ प्रकाश मे कई लोग महर्षि दयानंद के मनुस्मृति के श्लोक पर प्रश्न करते है जिसमे मनु महाराज आदेश करते है के संन्यास केवल ब्राह्मण ले सकता है | भगवान मनु ने एकदम सही लिखा है केवल ब्राह्मण संन्यास ले सकता है | ब्राह्मण अर्थात जिसे ब्रह्म का ज्ञान हों गया है | वानप्रस्थ मे अन्य वर्ण वाले योगाभ्यास से ब्राह्मण वर्ण के लिए अभ्यास करते और मोक्ष के लिए प्रयास करते है | अब प्रश्न ये उठता है के वानप्रस्थ से संन्यास को कब जाए तो इसका उत्तर है जब आत्म साक्षात्कार कि स्तिथि मे पहुच जाए | इसीलिए भगवा धारण किया जाता है के अग्नि स्वरुप हों गया | यानी समाधि कि स्तिथि मे पहुचने लगा योगी, अग्निमय हों गया | क्रन्तिकारी जो रंग दे बसंती चोला गाते उसका यही अर्थ लिया जा सकता है के वे अपने त्याग के वस्त्र को अपने रक्त के रंग से रंगने को उद्दत है | वानप्रस्थ के महत्व को कम न समझे वानप्रस्थ मे शिक्षा का दान भी होता रहा | समाज आधीन शिक्षा व्यवस्था मे सबको शिक्षवान एवं विद्यावान बनाने का काम ब्राह्मण करते थे | परन्तु अन्य वर्णों के लोग अपनी शिक्षा का दान वानप्रस्थ मे करते | आज विश्व बैंक से ऋण लेकर प्राथमिक विद्यालय चलाये जा रहे, उच्च एवं तकनिकी शिक्षा का भी हाल कुछ ऐसा ही हैं | यही यदि गुरुकुल होते और आश्रम व्यवस्था होती तो बिना एक भी रुपया ऋण लिए सब पढते और आगे बढते | उदाहरण के लिए समझे के किसी रथ बनाने वाले बढई या हथियार बनाने वाले लोहार ने यदि वानप्रस्थ लिया और यदि योग विद्या के लिए वह किसी कुलपति$ ऋषि के आश्रम मे जाता है तो यदि वह उस ऋषि से योग विद्या के सूक्ष्म सूत्र मिले बदले मे वह अपनी विद्या का दान विद्यार्थियो को कर सकता है क्यों के वो आचार्यो ब्राह्मणों का समय लेता हैं | पूरी व्यवस्था दान पर चलती थी, अद्भुत उदाहरण त्याग और दानशीलता का वैदिक अर्थ एवं राज व्यवस्था मे दिखता था | अब लालच और स्वार्थ तंत्र है चारों ओर केन्द्र एवं राज्य सरकारे ऋण मे दबी है अब वे बैंकिंग विस्तार कर के हर व्यक्ति को ऋण मे डालना चाहती हैं | घाटे के बजट साल दर डाल से बनते आरहे है | राज्य सरकार के पास पैसा नही होता वेतन देने का प्राथमिक शिक्षकों को हर तीन मास मे वेतन आता है उनका | इसका परिणाम होगा क्या जब बैंक और विदेशी ऋण एक सीमा से पार हों जाएगा तब विदेशी निवेश प्राथमिक शिक्षा तक आजाएगा | अभी तो विचारक थोड़े ही सही उत्पन्न हों रहे है विद्यालयों मे तब दासों का निर्माण होगा और भी बड़े स्तर पर | यानी वर्ण-आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने से राष्ट्र पर ही नही लोगो कि निजी स्वाधीनता पर भी संकट आता है और आया है | बस ये उतनी तीव्र गति से नही होता इसलिए लोग सजग नही रहते और इसे होने देते है |
संन्यास मे योगी प्रचार करता अपनी मुक्ति का प्रयास कर्ता दूसरों को भी मुक्ति के मार्ग के लिए उद्दत कर्ता | देखिये महर्षि दयानंद ने क्या किया महर्षि पत्तांजलि का योग का मार्ग मोक्ष के लिए वेदानुकूल बताया | गुरुकुल खुलवाए, व्याकरण के विद्वान खड़े किये, गौ रक्षा का बहुत बड़ा प्रयास किया | अपनी ऋतंभरा बुद्धि से हमें अपना साहित्य उपलब्ध कराया | सत्यार्थ प्रकाश मे स्पष्ट उद्घोष किया के दुनिया के जितने भी संप्रदाय एवं मत है उनमे जो जो भी अच्छी बात है सब पूर्व मे वेद मे कही जा चुकी अतः वेद से ली हुई है उसमे कुछ भी नया नहीं | सत्य मत वेद मत है डंके कि चोट पर स्थापित किया | सोचिये एक विशुद्ध सन्यासी क्या नही कर सकता है | इसी प्रकार यदि पुनः संन्यास कि व्यवस्था का पालन किया जाए तो हम आर्यो को चक्रवर्ती राज्य कि स्थापना करने मे अधिक वर्ष नही लगेंगे | सिर्फ भगवा पहन लेने से कोई सन्यासी नही हों जाता | देखिये स्वामी श्रद्धानंद जी ने गुरुकुल कांगडी कि स्थापना के १७ वर्ष बाद संन्यास लिया और जामा मस्जिद से वेद मन्त्र बोले | २० लाख से ऊपर मुस्लिमो कि शुद्धि कि और ९० सहस्त्र से ऊपर ईसाइयो कि शुद्धि कि | तो सन्यासी जब साधना नही कर्ता और लोक मे प्रचार कर्ता है या समाज का उद्धार कर्ता तो समाज को लाभ होता है ना के समाज के धन का दोहन होता है | ये हम पर है के हम इस वर्णाश्रम व्यवास्था को आगे बढाते रहे | आर्यो का शासन तो आएगा ही तब तक इसे आगे बढाना है |
वेद का ब्राह्मणों मुख्मासी वाले मन्त्र कि उत्तम व्याख्या ऋषि दयानंद ने कि है | उसके उपरान्त भी लोग सवाल उठाते के शुद्र को पैरों कि संज्ञा दे दि गई | पैर और पेट मिले होते है और क्या बिना पैरों के प्रयोग के भोजन पच सकता है ? यदि भोजन नही पचेगा शरीर मे तो मस्तिष्क को भी उर्जा नही मिलेगी और रोग उत्पन्न होंगे | रक्षक समाज को छाती और बाहू कि तुलना है पर सभी है एक शरीर के अंग | कल्पना करिये किसी के भी बिना जीवन असंभव | और वामपंथी इतिहासकार परिश्रमी शुद्रो को आर्यो के समाज से बाहर दिखाते रहे है | और जो हमने व्याख्या दि के सबको ब्राह्मण बनाना है तो प्राणों को समाधी अवस्था मे सहस्त्रसार मे लाना होता है मुक्ति हेतु इसी प्रकार सभी को ब्राह्मण बनने का प्रयास करना चाहिए वानप्रस्थ आश्रम मे |
इस लेख से अन्य तीन संशय स्पष्ट हों जाने चाहिए के क्यों कहा जाता है के सन्यासी से उसकी जाती नही पूछी जाती | क्यों के सन्यासी (वेदानुकूल जिसने सन्यास लिया) वर्णित ब्राह्मण ही होता है | दूसरा जो लोग सत्यार्थ प्रकाश मे दिए गए मनु स्मृति के प्रमाण पर प्रश्न करते के केवल ब्राह्मण सन्यास ले सकता है | वर्णाश्रम व्यवस्था का ध्येय ही सबको ब्राह्मण बनाना है | तीसरा के वेद मन्त्र समय के साथ आये ना के आदि सृष्टि इसका भी निस्तारण हों जाता है | वेद आदि सृष्टि मे ही आये उन मंत्रो कि समाज के अनुसार व्याख्या समय के साथ ब्राह्मण ऋषियों ने कि | आर्यो का समाज आदि सृष्टि से ही ब्राह्मणवादी समाज रहा है | कोई कितना ही बड़ा राजा क्यों ना हुआ हों समय आने पर संन्यास आश्रम मे आकार उसकी मर्यादा पालन सभी महान राजाओ ने किया | महाराज भृतहरि का ही उदाहरण लीजिए | हमें पुनः मुमुक्षु, ब्राह्मणवादी, वेद वादी समाज कि स्थापना करनी है | यही आर्य समाज का एवं सनातन धर्म के पालन का ध्येय है |
सर्वे भवन्तु ब्राह्मणः, सर्वे भवन्तु सुखिनः
ओ३म्
*अन्न से प्रमाद अर्थात कार्बोहाइड्रेट गेहू चावल का सेवन बढ़ा फलो कि तुलना मे |
#यज्ञ केवल हवन ही नही, कोई आविष्कार करना, विवाह करना, संतान उत्पन्न करना | जिस से समाज का कल्याण हों वो यज्ञ कहा जा सकता |
@शुक्राणु मे जो सूक्ष्म तत्व होते है वे सब कोशिका कि दीवार से लेकर आंतरिक संरचना मे प्रयोग होते है | अतः उन सूक्ष्म तत्वों का घनत्व अधिक रखा जाता है ब्रह्मचर्य से क्यों के मूल कोशिका स्वस्थ होनी चाहिए |
%समाज कोई भी हों बौधिक,शारीरिक,व्यवसायिक और श्रामिक(लेबर) वर्ग मे ही बटता है इसके अतिरिक्त और वर्ग नही बनते | होलीवुड मे वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत के बिगड़े रूप पर ही फैक्शन व्यवस्था का नाम देते हुए “डाईवेर्जेंट” नाम का चलचित्र बनाया गया है |
Labels: समाज सुधार
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