ग्राम समाज बनाम वैश्वीकरण
जिन्हें लगता हैं के दुनिया में वैश्वीकरण अर्थात ग्लोबलाइजेशन पूर्णतः सोविएत संघ के टूटने के बाद अर्थात भारत में कथित आर्थिक उदारीकरण के काल १९९१ के बाद आया हैं वे वास्तव में इतिहास में हुई उथलपुथल और उस से बढ़कर भारतीय अर्थव्यवस्था अवगत नही हैं | क्योंकी जैसे-जैसे राज व्यवस्थाए आगे के नियमों का निर्माण करती वे ये भी व्यवस्था करती के लोग पुराने नियमों को भूल जाए | यदि पुराना भूलेंगे नहीं तों आगे के नियम स्थापित नहीं हों पाएंगे | भारत मे तों एंग्लो लोगो के माध्यम से ये बृहद स्तर पर किया गया हैं | वैश्वीकरण वस्तुतः पूरी दुनिया को जोड़ने का नहीं अपितु पूरी दुनिया को सिर्फ कुछ गिने चुने परिवारों पर निर्भर कर देने का नाम हैं | ये लोगो को गुलाम बनाने कि व्यवस्था हैं, यह व्यवस्था पुरे विश्व में कुछ सौ वर्षों तक बची वैदिक अर्थ व्यवस्था को तोड़ने के लिए उत्पन्न कि गई | इस व्यवस्था में शोषण होता हैं और विश्व को दिखाया ऐसे जा राह जैसे ये बड़ी हितकरी व्यवस्था हैं |
वैश्वीकरण कि नीव औद्योगिक क्रांति से ही पड गई थी | जहा लोगो का काम मशीनों के माध्यम से उनलोगों ने छीन लिया था जिन्हें उन उद्योगों के बारे में अक्सर कुछ भी नहीं मालुम था | जैसे जुलाहे कपडे बुनते थे और वे उनके गाव के सभी लोगो के लिए पर्याप्त होते थे | हमारी व्यवस्था मे ग्राम-ग्राम जुलाहे बसाए जाते थे | उनके बने कपडे हैण्डलूम कहे जाते हैं आजकल, इनके कार्य को बंद कराया गया पावरलूम ने | अब गाव के जुलाहों के पास काम नहीं रह गया सिवाय इसके कि वो उस पूंजीपति कि कार्यशाला(फैक्टरी) में सेवा दे | अब वो अपना घरबार छोड़ के जाए वहा,जहा इसका उद्योग लगा हैं | उनके आधार पर उतना ही कमा पाएगा, जितना की फैक्ट्री के व्यवस्थापन मंडल या मालिक ने मजदुर के लिए उसका उसका वेतन तय किया हुआ है | अभी तक उसके लिए आय कि सीमा नहीं थी कृषक वस्त्र के बदले उसे अन्न देते थे, कुम्भकारो से भी वो इसी प्रकार आदान प्रदान कर लेता था और बड़ी प्रसन्नता से पाना जीवन जी रहा था | वो स्वतंत्र रूप से अपना कार्य कर रहा था चाहता तों किसी अन्य ग्राम जहा अधिक आबादी होती और कम जुलाहे, वहा के लिए भी वस्त्र बना सकता था लेकिन अब वो एक मजदुर हों गया | अब उसके लिए अधिक धन का अर्थ है अधिक गुलामी वो भी उन कार्यशालाओ के स्वामियों अनुसार | उस धन का एक अनुपात उसे अपने घर को भेजना है, वहां पर रहना हैं भोजन पर व्यय करना है और स्वयं के लिए कपडे भी खरीदने है इत्यादि यानी उस जुलाहे का अच्छा जीवन बर्बाद हो गया और समृधि से दरिद्रा कि ओर बढ़ गया | अब यहाँ धन कौन कमाएगा कारीगर नहीं, वो जो बीच में दलाली करेगा | कच्चे माल से लेकर बने बनाये माल कि और कार्यशाला स्वामी (फैक्टरी मालिक) तो कमाएगा ही | पर दलालो को देखा जाये तो वे कम काम में सबसे अधिक कमाएंगे और जो स्वतंत्र कार्य कर रहा था, जो उद्योग अर्थात श्रम कर रहा था, जिस पर लोग निर्भर थे आज वो कुछ लोगो के हाथ का खिलौना बन गया | वस्त्रों पर कुछ लोगो का नियंत्रण हुआ सो अलग अब राजव्यवस्था इन कुछ फक्टोरी मालिकों को आसानी से नियंत्रित कर सकती हैं बजाये हर गाव के जूलाहे को नियंत्रित करने के | इसीलिए पूंजीवाद ब्रिटिश उपनिवेश का एक महत्वपूर्ण अंग था |
इसी प्रकार दूसरा प्रकरण समझे, हर ग्राम में ग्राम सभा होती थी वो थोडा-२ अनाज सबसे लेकर सुरक्षित कर लेती थी | आपातकाल में वो अनाज आपस में बट जाता था | अब सरकार क्या करती हैं किसानो से अनाज खरीदती हैं जिसमे बीच में दलाल अत्याधिक लाभ कमाते हैं | वे सरकारी गोदामो को बेचते हैं सीधे किसान नहीं बेचता क्योंकीसरकारी अधिकारी उनसे अच्छे से वर्तते नहीं | वहां के मजदुर पल्लेदारो अनाज को तौलते वक्त इतनी बर्बादी करेंगे के दोबारा किसान वहा बेचने नहीं जाएगा | तो खरीदार एक तों सरकार, दूसरे मिल मालिक होते हैं, दूसरों को बीच के दलाल अनाज बेचते हैं, इन दलालो मे छोटे व्यापारी से लेकर ग्रामीण क्षेत्रो के आढती तक होते है | ये अनाज के दाम भी सरकार कि इकाई भारतीय खाद्यान निगम यानी फ़ूड कारपोरेसन ऑफ इंडिया एफ.सी.आई कर्ता हैं | २२ चीजों के दाम निर्धारण का अधिकार हैं जिसमे गेहू और धान कि वो खरीदारी भी कर्ता हैं | वो इसे रोक के रख लेता हैं और पुरे देश का अनाज स्थान-२ पर उसके गोदामो में भरा रहता हैं बाद में धीरे धीरे राशन के नाम पर इसे गरीबो को सस्ते दामो पर देने कि बात कही जाती | हमें लगता सरकार तो बहुत अच्छा कार्य कर रही | तो इसकी असलियत को समझिए, वास्तव में सरकार आपको गरीब बनाये रखने के लिए ये सब कर रही हैं | पहले क्या होता था के गाव में अनाज उत्पादित हुआ गाव में ही आपातकाल में बट गया अब अनाज सरकार लेती हैं अपने रखे दामो पर | उसे अपने गोदाम ले जाती हैं और वापस थोडा-थोडा कर के गरीबो को देती हैं उसके पास निर्यात का बहाना भी और राशनिंग का भी | तो देखिए पहली मूर्खता के प्रक्रिया को जटिल बना दिया अपने लाभ के लिए | सरकार के दाम निर्धारण हाथ में लेने से किसान दिन पर दिन गरीब होता गया जमीने बेचता गया | भुखमरी कि कगार पर आया और भी कारण रहे जिनमे ये एक | फिर राशनिंग कि व्यवस्था द्वतीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ के साथ हुई जब एंग्लो लोगो को अपने देश अनाज भेजना था तो यहाँ पर राशनिंग करने लगे जो अभी तक चालु हैं |
किसान जो स्वतंत्र था उसको गुलाम बनाना कठिन था तो तरीके देखिये | बैलो को खत्म करवाया फिर गाय को ताकि जमीन जोत ना पावे | समय के साथ हलयंत्र यानी ट्रैक्टर आगये तो गौ वंश और बड़े स्तर पर खत्म होने लगा | गाय के गोबर कि खाद के स्थान पर विदेशी कंपनियों कि खाद ने जगह ले ली समय के साथ से देश कि कंपनिया भी युरीया, डाई अमोनियम फोस्फेट बनाने लग गई | परिणाम हुआ के फसलों में कीड़े लगने लगे हानिकारक रसायनों के कारण, उसके लिए रासायनिक कीट नाशक कंपनियों ने बनाये जिस से खेत पर आने वाली चिड़िया मरने लगी और उन्होंने खेत पर आना छोड दिया | तों और कीड़े लगने लगे, यानी दर्द भी वही देते है फिर दवा भी वही देते है जिस से दर्द और बढ़ जाता हैं और आप और दवा मांगते है और इस प्रकार वे धन कमाते ही रहते है | मनुष्यों में नपुंसकता दोष आने लगा, कैंसर के रोग बढ़ने लगे | जो कार्य पहले नीम के पानी और गौ मूत्र से हो जाता था उसे खत्म करा के इतनी चीजे उतपन्न कर दी गई | और किसान जो केवल गाय से ही पूरा खेती का कार्य देख लेता था वो निर्भर हो गया कंपनियों पर उसके उपरान्त भी उत्पादित सामिग्री का मूल्य निर्धारण सरकार के हाथ में | बचा था बीज जो वो बीज से बीज बनाता था उसमे किसी पर निर्भर नहीं था सिवाय प्रकृति पर | तो उसके लिए बधिया बीज निकाल दिए गए जिसे हाईब्रिड बीज कहा जाता हैं | उस से उत्पादित अनाज बीज रूप नहीं रखा जा सकता | जब के बीज से बीज इश्वरीय व्यवस्था है हम मनुष्य भी तो उसी का परिणाम हैं ऐसे ही सृष्टि आगे बढती हैं |
तो अब किसान पूर्णतः हो गया स्वतंत्र गुलाम उसकी कृषि कि सारी आवयश्कताये सरकार और कंपनियों के हाथ में आगई | जो किसान का अनाज १०-१५ रूपए किलो के समर्थन मूल्य में रखा जाता और दिखाया जाता वास्तव में वह किसानो को लुटने का तरीका हैं | देखिये यदि एक किलो धान का मूल्य १२ रूपए किलो या १२०० रूपये कुंटल रखती हैं एफ.सी.आई, तो जरा मूल्याकं करिये के उस खेत कि जुताई मे कितना डीसल लगा होगा जिसका भाव भी सरकार, कंपनियों के साथ मिलकर तय करती है, उसमे खेत मे कितना पानी लगा होगा ? उस पानी को निकालने में कितना डीसल लगा होगा ? १ लीटर मिनरल वाटर १८-२० रूपये लीटर मिलता हैं १ लीटर डीसल ५० रूपए मूल्य से ऊपर मिल रहा हैं तो अब १०-१२ रूपए किलो मूल्य का अनाज वास्तव में ७०-८० रूपए किलो मिलेगा | यानी किसान समृद्ध हो जाएगा यदि सरकार अपना नियंत्रण ना करे और बाजार को भाव तय करने दे | देश में ६०-७० फ़ीसदी आबादी कृषि आधारित हैं यानी वो वर्ग जो बहुलता मे हैं समृद्ध हो जाएगा अर्थात एक कृषिप्रधान देश समृद्ध हों जाएगा | आप कहेंगे मध्यम वर्ग, उसका क्या? वो सबसे पहले खाने कि व्यवस्था करेगा तो टी.वी. फ्रिज, ए.सी, बीजली का अत्यधिक उपभोग, महगे और दिखावे के उत्पाद छोड़ के सबसे पहले अनाज कि व्यवस्था करेगा और अन्य उद्योग बैठ जाएँगे इसी कारण सरकार कभी भी किसान को स्वंतंत्र और समृद्ध नहीं होने देगी | पूंजीवाद और भोगवाद बंद हो जाएगा | जो मुद्रा का नियंत्रण कर रहे है उनकी बाजार से पकड़ छूट जाएगी क्यों के मुद्रा वो जिसे जनता स्वीकारता देती है |
और इसी कारण भारत को कृषि प्रधान देश से आद्योगिक देश बनाने पर जुटी हुई हैं | कृषि प्रधान देश अध्यात्मिक देश होता हैं क्यों के लोगो कि पहली आवश्यकता रोटी होती है ऐशोआराम कि वस्तुए नहीं | यानी पूंजीवाद नष्ट हो जाएगा और दुनिया में पुनः समृधि आने लगेगी, अपराध घटने लगेंगे | भारत जैसा देश जहा ३-४ फसले होती है उस देश मे गरीबी का कोई कारण नहीं सिवाए इसके कि इस देश मे जो शासन व्यवस्था दी गई है वो स्तिथियो को और बुरी करती जा रही हैं अपने मूल को ना देख कर | एफ.सी.आई गोदामो मे जो अनाज सडाती है उसका ध्येय होता है बाद मे शराब कंपनियों को सस्ते मूल्य पर अनाज बेचना | शराब से लोगो कि विवेकशक्ति और क्षीण होगी और उनके मन पर संचार माध्यमों, वृत पत्रों इत्यादि पर विज्ञापन दे कर अपने उत्पादों को सरलता से खरीदने के विचार पहुचाये जा सकते है |
छोटी से लेकर बड़ी चीज तक बदली है, इनलोगों ने | यही है असुरिय व्यस्था युद्ध अभी भी चल रहा है बस हमार्र देवत्व कम हों गया है | देखिये, कैसे गाव के लोग २ पत्थर टकरा के या लकड़ी से आग्नि प्रज्वलित कर लेते थे तो अब माचिस बनाई लोगो को ये बता के समय बचेगा | उस से फोस्फोरस का उद्योग खड़ा हुआ, पापुला(ग्रामीण भाषा में) के वृक्षों का उद्योग खड़ा हुआ, दफ्ती का, प्रिंटिंग का, माचिस डिब्बी बाहरी खोखा बनाने का उद्योग जुड़ा यानी सरल प्रक्रिया जटिल कर दी गई | तो देखने में लग रहा रोजगार दे रहे परन्तु जो लोग कृषि से बर्बाद हुए हैं उन्हें गुलाम बनाये रखने के लिए अप्रत्यक्ष कही ना कही से जोड़ देते हैं | नुक्सान प्रकृति और मनुष्यों दोनों का ही होता हैं |
बहुत कम लोग ये विषय पकड़ते और उठाते हैं जब एक विद्वान ने ये दो विषय उठाये तो मुझे बहुत प्रसंता हुई थी | पहला के घडी में चाभी भरी जाती थी, अब सेल पड़ने लग गए २४ घंटे में लोग चाभी भी नहीं दे सकते पर टनों कचरा अब उन सेल्स का निकलता हैं | यानी सेल उद्योग अलग बन गया फल फुल गया | दूसरा के एडस का हल्ला हुआ जो दूषित सूची (सुई) से होता हैं समझ आई बात, पर साथ में सिरिंज भी डिस्पोसल चलने लगी, प्रयोग करो और फेको | पहले काच कि सूचीभेध पिचकारी (सिर्गिंज) को स्टरलाईज कर के कार्य चलाया जाता था | तो यहाँ भी करोडो टन कचरा निकालना प्रारंभ हुआ | मेरे पिता जी अभी भी हाथ से चाभी देने वाली घडी पहनते है जब के वर्ष मे उसकी मरम्मत करवाना मेहगा पड़ता है, इंजेक्सन देना हुआ तों सिरिंज को स्टरलाईज कर के ही देते है | जब मुझे पुरानी व्यवस्थाए समझ आई तों सामाजिक कर्तव्य निभाने का ये बहुत ही उत्तम माध्यम लगा | आज लोगो के पास समय नहीं है कारण यही है के जो मुद्रा पर नियंत्रण करे है वो चाहते ही नहीं के आप सोचे | हम ऋषि परम्परा का पालन करने वाले लोग़ है जो न्याय दर्शन के मार्ग पर चलते आये है |
आप लोग भी आसपास देखिये आपको ऐसी पचासों चीजे मिल जाएंगी जो पिछले ६० वर्षों में बदली गई हैं | मेरा वर्ष २०१३ मे बांधवगढ़ के जंगलो में भ्रमण हुआ तो वह के सफारी गाइड ने बताया के ये हठील काया का पेड हैं इसके फल से नहाते कपडे धोते हैं, ग्रामवासी २० रूपए किलो इसे बेचते | मुझे विचार आया के ऐसा कौन सा इतना उपयोगी पेड है और मुझे नहीं पता जब देखा तों वो रीठा का वृक्ष था | शिकाकाई के साथ मिला कर बाल धोने का प्रचलन बहुत लंबे समय तक चला है | तो ये खत्म कर के शैम्पू का प्रचलन चला दिया | जो दतुन ४ दिन में एक बार कर्ता था उसके भी ९० साल कि उम्र में दात अच्छे रहते हैं और ब्रुश करने वाले के दन्त बहुत जल्दी जाते है | ब्रश घिसता है, मसूड़े घिसते है और ब्रश मे जीवाणु घर करते है सो अलग | इसी प्रकार नहाने के लिए रेवट मिट्टी या मुल्तानी मिट्टी का भी प्रयोग होता था तो आज घर-घर चर्बी के साबुन पंहुचा दिए गए हैं | इस वैश्वीकरण के नाम पर जम के धर्म भ्रष्ट किया गया हमारा | वैश्वीकरण उद्योगीकरण आधारित पूंजीवाद का विस्तार हैं जहा अमीर देश अपने देश में अपनी असलियत खुलने पर आगे बढते हैं एक उदाहरण देकर समझाता हू |
अमेरिका कि मार्लबोरो सिगरेट कंपनी ने इंडोनेसिया में विस्तार किया क्यों के उनके देश के न्यूयॉर्क नगर में १२-१३ डॉलर के करीब डिब्बी बेचनी पड रही थी | वहा पर ध्रुवीकरण हुआ कमुनिस्ट राज्य शासन आया तो उन्होंने विस्तार किया | आप कहेंगे पूंजीवादी देश के लिए तो कम्युनिस्ट शासन अच्छा हैं तो उत्तर हैं नहीं वे ऐसा ही चाहते थे | कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का एक बिंदु दुनिया से सीमाये हटाना हैं, और राष्ट्रवाद खत्म करना हैं | यदि उन कंपनियों को अमेरिकियो से ही मुनाफा मिलता रहता तो वे गरीब देशो को और अधिक गरीब और बीमार बनाने कि ना सोच-पाते तो उन्होंने नीति खेली | कंपनी अब अपनी सरकार को और अधिक कर(टैक्स) देगी क्यों के उसका व्यापारिक विस्तार हुआ |
लोगो को आलसी बनाना, भोगवादी बनाना ताकि बड़ी-२ कंपनियों का माल बाजारों में भर सके | वो चीजे जिनकी आव्यशकता भी नहीं हैं उसे भी वो बेच लेते हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण रेफिर्ज्रेटर हैं जिसकी हमें आव्यशकता ही नहीं थी | ऐसे ही हुआ के गंजे को कंघी बेच के गंजो के शेहेर में कंघी कि भरमार कर देना | ये विषय इतना बड़ा हैं के बहुत विस्तार से लेखन मांगता हैं अतः संछेप का उद्देश्य समझिए के वैश्वीकरण के पूंजीवाद से कभी उन्नति नहीं आने वाली | ये लोगो को धर्म से दूर रख कर सदैव के लिए गुलाम बनाने कि व्यवस्था हैं जहा कमजोर व्यक्ति अमीर का गुलाम हैं | आज से १५० वर्ष जो व्यवस्था अंग्रेजो ने बदलनी प्रारंभ करी कार्य अभी भी वही हों रहा बस तरीके बदल गए | आज भी वे नहीं चाहते आप अपना कार्य करे वे चाहते आप टाई लगा के उनकी कंपनियों का समान बेचे | वालमार्ट को लाना इसका एक उदाहरण है | आज बाइक पर पैंट शर्ट पहन कर चल रहा युवा ऐसा फस है विदेशी कंपनियों के चक्कर मे जैसे अंग्रेजो के समय मे हमारे उद्योगपति फसे थे | अधिकतर उद्योगपति वही थे जिन्हें आज पिछड़ी जाती का कहा जाता है |
इस परिवर्तन को समझे और दूसरों को समझाए | लोग़ प्रयास करे के स्वयं का कार्य करे ऐसा कार्य ना करे जिस से लोगो को और प्रकृति को हानि हों | नौकरी करे तों स्वदेशी कंपनी की करे, विदेशी कि कर रहे तों उसका तंत्र समझ कर भविष्य मे किसी भारतीय कंपनी को लाभ दे | हम सामाजिक कर्तव्यों के प्रति सजग रहे और जो न्यून हम समाज को दे सकते है वो दे, समाज सुखकारी होने लगेगा |
शमित्योम्
Labels: अर्थव्यवस्था सुधार
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home