समलैगिक रोग : कारण, संकट और निवारण
चर्चा में ये विषय समय-२ पर आता रहता है | एक कथित आर्य समाजी अग्निवेश भी इसका समर्थन करते पाया गया | नास्तिक अधिकतर इस समस्या का समर्थन करते है | उनके लिए ये कोई बिमारी नहीं कोई समस्या भी नहीं | वे तो इसे मूल अधिकारों से जोड़ के देखते है | हम समलैगिकता के कारण उस से उत्पन्न समस्या और निवारण पर चर्चा करेंगे | क्यों के ये इश्वरी व्यवस्था से विपरीत इतनी भयंकर बिमारी है के इसके बढ़ने पर मानव जाती के अस्तित्व पर संकट आजाये | पर सर्वप्रथम तो मेरा सभी से निवेदन है के समलैगिको का उपहास ना उडाये | उन्हें बीमार माने और उन्हें सामान्य करने के लिए प्रयास करे |
कारण
लोग कहेंगे के इसमें उनका क्या दोष यदि उनका आकर्षण विपरीत लिंग पर ना होकर सामान लिंग पर होने लगा | हम यहाँ कार्य कारण सम्बन्ध से इस बात को समझाना चाहेंगे | प्रकृति ने हमें ऐसे बनाया है के हमारा आकर्षण विपरीत लिंग के प्रति होगा | यदि ऐसा नहीं होता तो हमें जनाना होगा के किन कारणों से नहीं हों रहा है | सबसे प्रमुख कारण जो हम प्रथम लिखते है वो ये के पूर्वजन्म के संस्कार दोष |
मान लीजिए किसी व्यक्ति में मृत्यु पूर्व गुण कर्म स्वभाव में बृहद परिवर्तन आते है | इसका सबसे कारण संगती हों सकता हैं | यानी स्त्रिया पुरुषों के संग रहे तो पुरुषों जैसा स्वभाव और पुरुष स्त्रियों के संग अधिक रहे तो उनके गुणों को धारण करने लगेंगे | ऐसा व्यक्ति यदि मृत्यु को प्राप्त होता हैं | तो गुणों की प्रबलता अनुसार शारीर धारण को मिलेगा | मान लीजिए कोई स्त्री पुरुष अनुसार कार्य करती रही | अब नए शरीर में उसको पुरुष का शरीर मिला तो शारीर संरचना तो उसकी पुरुष जैसी पर आकर्षण स्त्रियों जैसे होता वैसा पुरुषों के प्रति | तो यहाँ समान लिंग आकर्षण का दोष आगया |
दूसरा कारण, पेट में शिशु का लिंग निर्धारण कुछ मॉस पश्चात होता है इसी कारण पुरुषों में भी स्तन होते है | अब तीसरे चौथे मॉस यदि माता स्वाभाविक लिंग की उत्पत्ति के विपरीत अपने बालक के लिंग की कल्पना करती तो भी दोष आता | गुणों का भेद बालक में होता है |
कई बार लड़किया समाज में लडको को अधिक सम्मान और प्यार देख कर लिंग परिवर्तन की चाह रख लेती है | विपरीत भी संभव है | शारीरिक देवताओ के उत्सर्जन अर्थात हार्मोन्स के श्राव (आंग्ला-सिक्रीशन) में असमान्यता भी कारण हों सकती है | जिस समाज में रह रहे वो भी हमें प्रभावित कर्ता है | यानी समलैगिको के बीच एक सामान्य व्यक्ति भी समलैगिक हों सकता है | शिक्षा और खानपान शरीर और शरीर की प्रकृति अनुकूल हों यानी वात पित्त कफ को साम्यावस्था में लाने वाला भोजन हों | तो ना शारीरिक दोष और ना ही मानसिक दोष उत्पन्न होंगे | ऋषि दयानंद कहते है कन्याओ को कन्याओ के अनुकूल और बालको को उनके अनुकूल शिक्षा दि जाए |
संस्कार दोष यानी गर्भाधान के पश्चात वेदोक्त रीती से सारे संस्कार करे तो कभी ऐसी समयाये ना हों | महर्षि दयानंद रचित संस्कार विधि का अध्यन करे | इस प्रकार अनेको अनेक कारण हों सकते है समलैगिकता के या जिन से सामान लिंग के प्रति शारीरिक आकर्षण पैदा हों सकता हैं |समलैगिकता से उत्पन्न संकट
यदि समलैगिक लोगो के माता पिता विवाह ना करते इसी दोष के कारण तो ना समलैगिक होते ना इसका समर्थन करने वाले और इसको मानसिक रोग मानने से निषेध करने वाले होते | एड्स १ व्यक्ति से प्रारंभ हुआ और करोडो लोगो के प्राण ले गया | इसके निर्मूलन पर कार्य होने लगा | यदि समलैगिकता बढ़ेगी तो मानव जाती के अस्तित्व पर सीधा संकट पड़ेगा | आबादी घटेगी और लिंगानुपात बिगडेगा | संतुलन जिस से प्रकृति चलती है और सुख मिलता है बिगडेगा और लोग दुखी होंगे | कुछ बड़े विश्व की अर्थ व्यवस्था को नियंत्रण करने वाले लोग तो ये चाहते ही है के मनुष्य आबादी उतनी रहे जितनी वो नियंत्रित कर सके |
लिंगानुपात बिगड़ने की समस्या तो लोग जानते ही है | पुरुष कम हों गए तो स्त्रिया व्यभिचार को जा सकती है या देह व्यापार बढ़ सकता है या पुरुष भी देह व्यापार में जा सकते है | व्यभिचार तो बढ़ेगा ही हर सम्भावना पर | जो कुछ दुर्बुद्धिजीवी उसमे भी कहेंगे लोगो का जीवन है वो जैसे चाहे रहे | १ पुरुष कई स्त्रियों से १ स्त्री कई पुरुषों से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करे समस्या क्या है | तो दुःख के साथ हमें नैतिकता और प्रेम का मूल पाठ उन्हें बताना होगा जो उन्होंने कभी पढ़ा नहीं | के जानवरों में भी जातीया है जो जोड़े बना के रहती है इस से उनका अस्तित्व बना रहता है | कोई किसी के साथ भी रहे, विवाह करे ना करे, चरित्र निष्ठ रहे ना रहे इन अस्थिर बातो से मानव जाती के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाएगा | कोई संतानोत्पत्ति क्यों करेगा ? शारीरक सम्बन्ध तक ही रह जाएगी यानि स्त्री संरक्षण के भाव मिट जाएँगे और बलात्कार की घटनाएं बढ़ जाएँगी | पश्चिम में यही हों रहा है | विवाह खत्म हों रहे है हुए भी तो तलाक नाम से दम्पत्ति भिन्न हों रहे है | सुख से कोशो दुर है वे, प्राचीन ऋषि मुनि अपनी पत्नियों से सम्बन्ध बनाते थे तो केवल संतानोत्पत्ति के लिए | सब सुखी थे और उनकी व्यवस्था पर चलने वाले आज भी सुखी ही है | बाल व्यभिचार बढ़ेगा, विशेषकर बालको पर | बालक जो पीड़ित हुए बाल्यावस्था में उसमे गुदा मैथुन प्रमुख प्रकार का शारीरिक शोषण है | इस से उनके बाल मं में विकृति लंबे समय के लिए पड़ जाती है | पीड़ित को यदि सही मार्ग ना मिले तो वो ये भी सोचेगा जो अनर्थ मेरे साथ हुआ मैं दूसरे के साथ करूँगा यही व्यवस्था है | तो देखिये कैसे अधर्म फैलता चला जाए | बालको की बाल्यावस्था बुरी प्रभावित होंगी | सामान्य सम्बन्ध टूटेंगे, भाई बंधुत्व की भावना का नाश होगा | कोई किसी पर विश्वास नही करेगा | तो आप देखे कितना बड़ा अधर्म है समलैगिकता कितना बड़ा अपराध और उस से बड़े अपराधी इसे बढ़ाने वाले |
लोग पूछते है वेद में कहा निषेध है | हम कहते है जो वेद के विवाह वचन है वो स्त्री पुरुष के बीच के ही है किसी अन्य के नहीं | इसी से निषेध हों जाता है के पुरुष-२ और स्त्री-२ में शारीरिक आकर्षण वेद विरुद्ध है | फिर जो सामान्य बुद्धि से दिख रहा के प्रकृति के माध्यम से परमात्मा ने निर्माण किया स्त्री पुरुष का | शारीरिक बनवट एक दूसरे को पूर्ण करती है | उनके मिलन से समाज हित का कार्य होता है संतानोत्पत्ति होती है | मोक्ष के लिए देव ऋषि के साथ-२ पितृ ऋण को उतारना हमारे यहाँ आवश्यक बताया है | यदि ऋषि मुनि अपना मोक्ष देखते और वीर्य दान कर के उत्तम संताने ना उत्पन्न करते तो स्वार्थी कहलाते | जिस प्रकार योग के मार्ग से स्वं का मोक्ष का मार्ग खोले उसी प्रकार अपने उत्तम गुण (जींस) आगे पहुचाये और दूसरी जीवात्माओ के लिए शारीर उपलब्ध करना भी हमारा दायित्व है | संतानोत्पत्ति कर के उसे संस्कारित किये बिना पितृ ऋण नहीं उतरता |
निवारण
सबसे उत्तम निवारण ऋषि मुनियों की बनाई व्यह्वस्था का पालन करना है | संस्कार विधि में बताए संस्कारो का विधि विधान से पालन करे तो ये समस्या ही ना उत्पन्न हों | इसीलिए ऋषि मुनियों के जब तक व्यवस्था रही इस प्रकार का मानसिक रोग उत्पन्न ही नहीं हुआ | जो लोग शंकर जी का उदहारण देते है के देखो प्राचीन व्यवस्था में भी ये था तो बाबर भी यदि समलैगिक था या ग्रीस यूनान के दार्शनिक समलैगिक थे तो क्या दोष तो हम उन्हें बता दे के आर्य समाज पुराणों को नहीं मानता | क्यों के सीधे वेद से सत्य विद्या मिले तो मिलावटी ज्ञान में समय नष्ट उपयुक्त नहीं | फिर भी कुछ विद्वानों ने पुराण शोधन का उत्तम कार्य किया है | जो-२ वेदानुकूल धर्मानुकूल है वो हमें स्वीकार है वाम मार्गी काल में प्रक्छिप्त कथायो का वैदिक संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं है |
२५ जनवरी २००९ को हिंदुस्तान टाइम्स में पुराण के ही आधार पर खुले आम शंकर जी को बाबर जैसे आततायी के समान समलैगिक कहा जाता है और कोई कुछ नहीं कर पाता | पाखंड खंडन अच्छा कार्य है पर इनमे सहस है क्या के हदीसो में व्यक्त गलत कृत्यों को भी इसी प्रकार लिख सके ?
संस्कारो का पालन करना ही प्रथम निवारण है और यही रोकथाम है | जो पीड़ित है सर्व प्रथम तो उन्हें पीड़ित या रोगी मानिए | रोगी से सहानभूति रखे ना के उपहास करे | फिर कारण जाने और उस अनुसार निवारण करे | समलैगिक थोड़े ही समय में इस से बाहर आना चाहते है | अंतर्जाल के प्रसिद्ध नास्तिक विद्वान श्री अली सीना जी सुझाव देते है एक ऐसे ही पीड़ित को के वो पोर्न देखे | सुझाव भले कार्य कर जाए पर ये सही नहीं है इस से और संकट उत्पन्न हों सकता हैं | ये सत्य है के जो हम बार बार देखते है वो करने की इच्छा करते है | पर तब क्या जब वो करने को कुछ उपलब्ध ना हों ऐसे में बलात्कार की घटनाये बढ़ेंगी | तो सरलतम उपाय मानसिक दृणता ही है उन्हें ये बात समझनी होगी के उनकी इच्छाए प्रकृति विरुद्ध है और प्रकृति अनुकूल चलने में ही सुख है |
अभी भी यदि कोई कहता के ये व्यग्तिगत चुनाव है तो हम उन्हें कहते है के व्यग्तिगत चुनाव की स्वतंत्रता तब तक है जब तक के जब तक के वो समाज को ना प्रभावित करे | यदि समाज का अहित है तो ऐसे चुनाव को लोग स्वतंत्र नहीं | समाज हित के नियमों को पालन करने के लिए सब परतंत्र है | आर्य समाज का दशवा नियम “सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें” सभी भद्रजन इस नियम से सहमती रखते है |
“सर्वे भवन्तु सुखिनः”
नमस्ते
Labels: समाज सुधार
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